Book Title: Tattva Samucchaya
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharat Jain Mahamandal

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Page 200
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७९ जाते हैं, शेष सत्र प्राकृत पद्यमय है । मुनि की साधनाओं में शरीर संस्करण का परित्याग व भक्ष्य और अभक्ष्य का विचार एक प्रमुख स्थान रखते हैं। इस अध्ययन में यही विषय वर्णित है। [दशवैकालिक के अनेक संस्करण निकल चुके हैं। डॉ. ल्यूमन द्वारा सम्पादित और अनूदित संस्करण हेमवर्ग में सन् १९३२ में छपा था।] मुनि-धर्म [२] यह संकलन वट्टकेर स्वामि कृत मूलाचार पर से किया गया है। यह ग्रंथ अति प्राचीन है, किन्तु इसका रचनाकाल अभी तक निश्चित नहीं हो सका है । दिगम्बर सम्प्रदाय में यह ग्रंथ मुनि-धर्म के लिये सर्वोपरि प्रमाण माना जाता है । द्वादशांग के भीतर मुनिधर्म का वर्णन करनेवाला प्रथम श्रतांग 'आचारांग' है जिसका दिगम्बर परम्परा में लोप हुआ माना जाता है। उसके विषय का उद्धार वर्तमान ग्रंथ द्वारा किया गया है। इसीलिये धवलाकार वीरसेन जैसे ग्रंथकार ने इस ग्रंथ का उल्लेख 'आचारांग' नाम से ही किया है । इस ग्रंथ में कुल १२४३ प्राकृत गाथाएं हैं जिनको मूलगुण, बृहत्प्रत्याख्यान, संक्षेपप्रत्याख्यान, सामाचार, पंचाचार, पिंडशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगारमावना, समयसार, शीलगुणप्रस्तार, और पर्याप्ति इन बारह आधिकारों में विभाजित किया गया है । यह सब यथार्थतः मुनि के उन २८ गुणों का ही विस्तार है जो प्रथम अधिकार के भीतर संक्षेप से निर्दिष्ट और वर्णित हैं, अतः वही पूरा अधिकार मात्र यहां ले लिया गया है। [ प्रकाशित अनन्तकीर्ति ग्रंथमाला पुष्प १, मूल और हिन्दी अनुवाद बम्बई १९१९, तथा माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथ माला १९ और २३ । दो भागों में, वसुनन्दि कृत संस्कृत टीका सहित, बम्बई वि. सं. १९७७ और १९८० ] धर्माग यह प्रकरण 'बारस अणुवेक्खा' (द्वादशानुप्रेक्षा) में से लिया गया है। इसके कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य हैं, जिनकी प्राकृत रचनाओं का स्थान दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में अद्वितीय है। इस सम्प्रदाय में निम्न मंगलवाची श्लोक खूब प्रचलित है: For Private And Personal Use Only

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