Book Title: Tattva Samucchaya
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharat Jain Mahamandal

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Page 197
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ की रचना का काल ४७३ और ८१६ ईस्वी के बीच मानना चाहिये । इससे अधिक सूक्ष्म काल-निर्णय करने के लिये हमारे पास कोई साधन नहीं है । यतिवृषभ की एक और रचना पाई जाती है और वह है गुणधर आचार्य कृत कषाय प्राभृत' नामक सिद्धान्त ग्रंथ की 'चूर्णि' नामक टीका । इस ग्रंथ से भी कर्त्ता के समय पर अधिक प्रकाश नहीं पड़ता । 6 तिलोय-पण्णत्ति का प्रमाण ८००० श्लोक प्रमाण कहा गया है । बहुतायत से इसकी रचना गाथाओं में हुई है, पर कहीं कहीं प्राकृत गद्य भी पाया जाता है । कुछ प्रकरण ऐसे भी हैं जो धवलाकार के पश्चात् जोड़े गये प्रतीत होते हैं । ग्रंथ में नौ महाधिकार हैं जिन में क्रमशः लोक सामान्य, नरक, भवनवासी लाके, मनुष्य लोक, तिर्यग्लोक, व्यंतर लोक, ज्योतिर्लोक, देव लोक और सिद्धलोक का वर्णन है । इसका सम्पादन प्रथम बार डा० इरािलाल जैन और डा० उपाध्ये द्वारा हुआ है और वह दो जिल्दों में जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शालापुर द्वारा क्रमशः सन् १९४३ और १९५१ में हुआ है । गृहस्थ धर्म [१] यह प्रकरण सावयपण्णत्ति ( श्रावक प्रज्ञप्ति ) में से संकलित किया गया है । श्रावक धर्म का सबसे प्राचीन वर्णन सातवें श्रुताङ्ग 'उसग दसाओ ' में पाया जाता है । तत्पश्चात् प्राकृत साहित्य में स्वतंत्र रूप से श्रावकाचारका वर्णन करने वाला ग्रंथ श्रावक - प्रज्ञप्ति ही है । यह ग्रंथ प्राकृत गाथा और संस्कृत टीका युक्त पाया जाता है । मूल प्राकृत गाथाओं के कर्तृत्व के सम्बंध में कुछ अनिश्चय और मतभेद है । एक मत के अनुसार प्राकृत ग्रंथ उमास्वाति कृत है और उसकी टीका हरिभद्र कृत है । किन्तु अनेक प्राचीन ग्रंथों के उल्लेखों तथा भाषा व शैली आदि पर से उचित निर्णय यही जान पड़ता है कि संभवतः मूल व टीका दोनों ही हरिभद्र कृत हैं । [ प्रकाशित जैन ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, १९०५] हरिभद्र की अनेक संस्कृत और प्राकृत रचनाएं जैन साहित्य में सुप्रसिद्ध हैं । उनकी प्राकृत धर्मकथा 'समराइच्च कहा' प्राकृत साहित्य की एक विशेष निधि है । ये कुवलयमाला के कर्ता उद्योतन सूरि के गुरु थे और उद्योतन सूरि ने अपना ग्रंथ शक ७०० में समाप्त किया था । अतएव हरिभद्र का काल इस से पूर्व सुनिश्चित है । हरिभद्र ने अपने ग्रंथों में हर्ष, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, भर्तृहरि कुमारिल, जिनदासगणि आदि सुविख्यात ग्रंथकारों का या उनकी For Private And Personal Use Only

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