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तत्त्व-समुच्चय
ग्रन्थ-परिचय [:जिन ग्रंथों में से यह संकलन किया गया है उनका परिचय ]
लोक-स्वरूप लोक-स्वरूप सम्बंधी ये गायाएं यतिवृषभाचार्य कृत तिलोयपणत्ति ग्रंथ में से संकलित की गई हैं । दिगम्बर जैन घरम्परानुसार महावीर स्वामी के गणधर गैतम ने जो द्वादशांग की रचना की थी उनमें बारहवें अंग दृष्टिवाद के अन्तगत पांच विभाग माने गये हैं : परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। इनमें से परिकर्म के पुनः पांच भेद थे : चंदपण्णति, सूरपण्णत्ति, जंबूदीवपण्णत्ति, दीव-सायरपण्णाति और वियाहपण्णत्ति । इस प्रकार द्वादशांग में बारहवें अंग दृष्टिवाद के प्रथम भेद परिकर्म के भीतर सबसे प्राचीन जैन भूगोल व ज्योतिष का प्रतिपादन किया गया था । किन्तु यह साहित्य अब नहीं मिलता । श्वेताम्बर परम्परानुसार सूरपण्णत्ति, जम्बूदीवपण्णत्ति और चंदपण्णत्ति क्रमशः पांचवें, छठवें और सातवें उपांग माने गये हैं और ये ग्रंथ मिलते भी हैं । दिगम्बर परम्परा के उपलभ्य साहित्य में लोक के स्वरूप का व्यवस्था से पूरा वर्णन करने वाला ग्रंथ तिलोय-पणत्ति ही है । इस ग्रंथ में दिद्विवाद व परिकम्म के अतिरिक्त कुछ और भी लोकवर्णन संबंधी ग्रंथों का उल्लेख किया गया पाया जाता है जिन में एक 'लोयविभाग' भी है। यद्यपि यह प्राचीन प्राकृत 'लोय-विभाग, अब उपलभ्य नहीं है, तथापि उसका संस्कृत रूपान्तर सिंहसूरिकृत मिला है जिसमें स्पष्ट उल्लेख है कि शक संवत् ३८० में कांची नरेश सिंहवर्मा के राज्य के २२ वें वर्ष में सर्वनन्दि ने प्राकृत में जिस 'लोकविभाग' की रचना की थी उसी का सिंहमूरि ने संस्कृत रूपान्तर किया है। स्वयं तिलोय पण्णत्ति में महावीर के निर्वाण से लेकर कल्की तक एक हजार वर्ष की राज परम्परा भी पाई जाती है। अतएव स्पष्ट है कि इस ग्रंथ की रचना १०००-५२७=४७३ ईस्वी के पश्चात् हुई है । षट्खंडागम के टीकाकार वीरसेनाचार्य ने अपनी 'धवला' टीका सन् ८१६ में समाप्त की थी और इस रीका में यतिवृषभ को 'अज्जमंखु' और 'नागहत्यि' का शिष्य कहा गया है, तथा तिलोयपण्णत्ति का अनेकबार उल्लेख किया गया है। अतएव इस ग्रंथ
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