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तत्व-समुच्चय
[इस प्रकार स्वजाति, विजाति व मिश्र रूपसे द्रव्यमें द्रव्यका, द्रव्यमें गुणका या द्रव्यमें पर्यायका; तथा गुणमें द्रव्यका, गुणमें गुणका व गुणमें पर्यायका; और पर्यायमें पर्यायका, इन नौ प्रकारोंका आरोप किया जा सकता है जिससे असद्भूत उपनयके सत्ताइस भेद हो जाते हैं । ]
उपचरित उपनय-३ जो परस्पर दो भिन्न सत्यासत्यरूप वस्तुओंमें किसी प्रयोजन व निमित्त वश अभेदकी स्थापना करता है वह उपचरित उपनय है। इसके स्वजाति, विजाति व मिश्र रूपसे भेद होते हैं ॥४४॥
मेरे पुत्रादि बन्धुवर्ग और मैं एक ही हैं, वे मेरी सम्पत्ति रूप हैं, इत्यादि प्रकारसे स्वजातीय जीव पदार्थोंसे अभेद उत्पन्न करनेवाला स्वजाति असद्भुत उपचरित उपनय है ॥४५॥
__ आभरण, सुवर्ण, रत्न, तथा वस्त्रादि मेरे ही हैं, इस प्रकार सचित्तका अचित्त विजातिके साथ सम्बन्ध स्थापित करनेवाला विजाति असद्भुत उपचरित उपनय है ।।४६॥
देश, राज्य व दुर्ग ये सब मेरे हैं, इस प्रकार जो कहता है वह देशादिक जीव-अजीव उभय-रूप होनेके कारण स्वजाति-विजाति अर्थात् मिश्र द्रव्यों से अपना संबंध स्थापित करनेके कारण मिश्र असद्भूत उपचरित उपनयके अन्तर्गत है ।।४७।।
द्रव्य नाना प्रकारके भावोंको लिए हुए है, अतएव उसके यथार्थ ज्ञानकी सिद्धि निरपेक्ष एकान्तके द्वारा कदापि नहीं हो सकती; वह तो अनेकान्त रूप वचनके द्वारा ही हो सकती है। और वह अनेकान्त 'स्यात्' शब्दके द्वाग साधा जाता है, ऐसा जानिये ॥४८॥
जिस प्रकार रससिद्ध वैद्य सुवर्ण सिद्ध करके सुख भोगता है, उसी प्रकार योगी नयोंके स्वरूपको भले प्रकार समझकर और उनमें प्रवीण होकर चिरकाल आत्माका अनुभव करे ॥४९||
[ देवसेनकृत नयचक्र ]
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