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तत्त्व-समुच्चय
विरताविरतके समान जिस जीवके तत्त्वों के विषयमें श्रद्धान और अश्रद्धान दोनों हो उसको सम्यग्मिथ्याष्टि समझना चाहिये ।।५९॥
जो जीव जिनेंद्रदेवके कहे हुए आप्त, आगम व पदार्थका श्रद्धान नहीं करता; किन्तु कुगुरूओंके कहे हुए या बिना कहे हुए भी मिथ्या पदार्थका श्रद्धान करता है, उसको मिथ्यादृष्टि कहते हैं ॥६॥
१३ संज्ञा मार्गणा नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपक्षमको व तज्जन्य ज्ञानको संज्ञा कहते हैं। और जिनके यह संज्ञा न हो, किन्तु केवल यथासम्भव इन्द्रियजन्य ज्ञान हो, उनको असंज्ञी कहते हैं ॥६१॥
हितका ग्रहण और अहितका त्याग करानेके प्रकारको शिक्षा कहते हैं । इच्छापूर्वक हाथ पैर आदि अंगों के चलानेको क्रिया कहते हैं। वचन द्वारा बताये हुए वस्तु स्वरूप या कर्तव्यको उपदेश कहते हैं, और श्लोक आदिके पाठको आलाप कहते हैं। जो जीव इन शिक्षादिकको मनके अवलम्बनसे ग्रहण-धारण करनेकी योग्यता रखता है, उसको संज्ञी कहते हैं । और जिस जीवों में यह योग्यता न हो उसको असंज्ञी कहते हैं ॥६२॥
___ जो जीव प्रवृत्ति करनेके पहले अपने कर्तव्य और अकर्तव्यका विचार करे, तथा तत्त्व और अतत्त्वका स्वरूप समझ सके, और उसका जो नाम रक्खा गया हो उस नामके द्वारा बुलानेपर आ सके, उसको समनस्क कहते हैं। और इससे जो विपरीत है उसको अमनस्क या असंज्ञी कहते हैं ॥६३॥
१४ आहार मार्गणा शरीर नामक नामकर्म के उदयसे द्रव्यात्मक देह, वचन और मन वननेके योग्य पुद्गलकी नोकर्मवर्गणाओंका जो ग्रहण होता है उसको आहार कहते हैं ॥६४।।
विग्रहगति अर्थात् एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरका ग्रहण करनेके लिये गमनको प्राप्त होनेवाले चारों गति सम्बन्धी जीव, प्रतर अर्थात् वर्गप्रदेशानुसार और लोक पूरण अर्थात् घनप्रदेशानुसार अपने आत्मप्रदेशों द्वारा समस्त लोकको भर देने रूप समुद्घात करनेवाले सयोग केवली, अयोगकेवली, और सिद्ध, ये जीव तो अनाहारक होते हैं, और इनको छोड़कर शेष समस्त जीव आहारक होते हैं ।।६।।
[ नेमिचन्द्राचार्यकृत जीवकाण्ड ]
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