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नय-वाद
१३३
जो द्रव्य के स्वभावको उसके अशुद्ध, शुद्ध व उपचार स्वरूपसे रहित केवल परम अर्थात् प्रमुख भावरूप मात्र ग्रहण करता है उसे सिद्धिकी अभिलाषा रखनेवालेको, परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय समझना चाहिये ||२०||
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पर्यायार्थिक नय - ६
जो चन्द्र, सूर्य आदिकी पर्यायों को अक्रात्रेम अर्थात् अनादि व अनिधन अर्थात् अनन्त स्वीकार करता है उसे जिन भगवान् ने अनादिनित्य पर्यायार्थिक नय कहा है ||२१|| कर्मों के क्षय हो जाने पर विनाशका कारण न रहनेसे जीव अविनाशी हो है, इस प्रकार जो जीवकी मुक्त पर्यायको सादि व नित्य बतलाता है वह सादिनित्य पर्यायार्थिक नय है ||२२||
जाता
सत्ताको अमुख्य करके जो द्रव्यकी उत्पाद और व्यय अवस्थाओं को ही ग्रहण करता है और इसलिये द्रव्यको अनित्य स्वभाव बतलाता है वह अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है || २३॥
जो द्रव्यको एक ही काल में उत्पाद व्यय और प्रौव्य, इन तीनों गुणों से संयुक्त मानता है वह अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है ||२४||
जो समस्त संसारी जीवोंकी पर्यायोंको सिद्धों के समान शुद्ध कहता है, वह अनित्य- शुद्ध पर्यायार्थिक नय है ||२५||
चारों गतियों के जीवोंकी पर्यायोंको जो कर्मोंकी उपाधिके संयोग के कारण अनित्य और अशुद्ध बतलाता वह विभाव- अनित्य- अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है ॥ २६ ॥
१. नैगम नय - ३
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जो द्रव्य या कार्य पूर्वका में समाप्त हो चुका हो उसका वर्तमान काल में होते जैसा ग्रहण करनेवाला भूत नैगम नय है । जैसे सहस्रों वर्ष पूर्व हुए भगवान् महावीरके निर्वाणको निर्वाण चतुर्दशी के दिन कहना 'आज वीर भगवान्का निर्वाण हुआ है' ||२७||
जिस कार्यको अभी प्रारंभ ही किया है उसको लोगों के पूछने पर पूरा हुआ कहना, जैसे भोजन बनाना प्रारंभ करने पर ही यह कहना कि ' आज भात बनाया है' यह वर्तमान नैगम नय कहलाता है ||२८||
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