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तत्त्व समुच्चय
ये दोनों आर्त और शैद्रध्यान महाभयकारी तथा स्वर्गादिक सद्गतिकी प्राप्ति विघ्नरूप हैं, अतएव इनका अपहरण करके सदैव धर्म और शुक्ल ध्यानमें अपने चित्तकी वृत्तिको लगावे ।। ९ ।।
शुभध्यान स्पर्शादि इन्द्रियों, क्रोधादि कषायों व मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिरूप योगों के निरोधकी इच्छा करता हुआ, तथा कर्मोंकी अधिकसे आधिक निर्जरा, चित्तके वशीकरण एवं सम्यगदर्शन, ज्ञान और चरित्ररूप सन्मार्गके अविनाशका विचार करता हुआ साधु अपनी दृष्टिको बाह्य पदार्थोंसे यथाशक्ति गेककर ध्यानमें लगावे, और संसारसे छुटकारा पाने के लिये आत्माका स्मरण करे । अपनी इन्द्रियों को उनके विषयोंसे हटा ले, मनकी प्रवृत्तिको इन्द्रियों के व्यापारसे रोक ले और उसे आत्म चिंतनमें लगा दे। इस प्रकार मन, वचन व कायकी समस्त बाह्य प्रवृत्तियों को रोक कर उन्हें आत्मध्यानमें ही धारण करे ॥१०-१२॥
३. धर्मध्यान उक्त प्रकारसे एकाग्र होकर ममकी चंचलताका निरोध करके चार प्रकारका धर्मध्यान करे । आज्ञा अर्थात् आगमोपदेश, अपाय अर्थात् पाप और पुण्यका विवेक, विपाक अर्थात् नाना काँका नाना प्रकार फल, एवं संस्थान अर्थात् लोकरचनाका स्वरूप, इनका विचय अर्थात् मनसे विचार पूर्वक शोध करना, यही चार प्रकारका धर्म ध्यान है ॥१३॥
___धर्मका लक्षण इस प्रकार है-आर्जव अर्थात् निष्कपट सरल भाव, लघुता अर्थात् निष्परिग्रह अथवा अल्पपरिग्रह वृत्ति, मार्दव अर्थात् आठ प्रकारके मद रहित कोमल परिणाम, उपशम अर्थात् क्रोधादि कषाय रहित शान्त भाव, तथा शास्त्र के उपदेश द्वारा अथवा स्वभावतः पदार्थों के स्वरूप जाननेकी रुचि अर्थात् तत्त्वजिज्ञासा । धर्मके इन लक्षणोंसे युक्त मनुष्य ही धर्मध्यानका पात्र है ॥१४॥
धर्मध्यानका अवलंबन पांच प्रकारका है-वाचना, पृच्छना, परिवर्तन अर्थात् पाठकी पुनरावृत्ति या आम्नाय, अनुप्रेक्षा अर्थात् प्राप्त किये हुए पदार्थ ज्ञानका अनुचिन्तन, और शास्त्रसे अविरुद्ध धर्मकथा आदि सभी बातोंका विचार ||१५॥
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