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तत्त्व-समुच्चय
१४ अमोग केवली ओ जीव अठारह हजार शीलोंका स्वामी हो चुका है, जिसके कमों के आनेका द्वाररूप आस्रव सर्वथा बन्द हो चुका है, जिसके कर्मरूपी रजकी प्रायः निर्जरा हो चुकी है तथा जिसका काययोग भी समाप्त हो गया है, वह चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोग केवली होता है ॥२८॥
सिद्ध जो ज्ञानावरणादि अष्टकर्मोंसे रहित हैं, अनन्तसुखरूपी अमृतके अनुभव करनेवाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्मोंके कारण भूत मिथ्यादर्शनादि भाषकर्म रूपी अजनसे रहित हैं, नित्य हैं, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अव्यावाध, अवगाहन, सूक्ष्मत्व, और अगुरूलघु, ये आठ मुख्य गुण जिनके प्रकट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, और लोकके अग्रभागमें निवास करनेवाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं ॥२९॥
[ नेमिचन्द्राचार्यकृत जीवकाण्ड ]
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