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तत्त्व-समुच्चय
५ देशविरत जो जीव जिनेंद्रदेवमें अद्वितीय श्रद्धा रखता हुआ त्रसकी हिंसासे विरत और उस ही समयमें स्थावरकी हिंसामे अविरत होता है, उस जीवको विस्तावित कहते हैं ॥१४॥
६ प्रमत्त-विरत सकल संयमको रोकनेवाली प्रत्याख्यानावरण कषायका उपशम होनेसे पूर्ण संयम तो हो चुका है, किन्तु उस संयमके साथ संज्वलन और नोकषायके उदयसे संयममें मलको उत्पन्न करनेवाला प्रमाद भी होता है, अतएव इस गुणस्थान को प्रमत्तविरत कहते हैं ॥१५॥
चार विकथा (स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्टकथा, अवनिपालकथा ) चार कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ ) पांच इंद्रिय (स्पर्श, रस, घाण, चक्षु और श्रोत्र) एक निद्रा और एक प्रणय (स्नेह), ये पंद्रह प्रमादोंकी संख्या है ॥१६॥
७ अप्रमत्त जिस संयतके सम्पूर्ण प्रमाद न हो चुके हैं, जो पांच महावतों तथा अहाइस मूलगुणों एवं शीलसे मंडित है और ध्यानमें लीन है, किन्तु जो अभी कर्मों के उपशमन या क्षपणमें प्रवृत्त नहीं हुआ अर्थात् उपशम् या क्षपक श्रेणी नहीं चढ़ा, वह सातवें गुणस्थानवर्ती अप्रमत संयत है ॥ १७॥
८ अपूर्वकरण जिसका अन्तर्मुहूर्तमात्र काल है ऐसे अधःप्रवृत्तकरणको बिताकर वह सातिशय अप्रमत्त प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ अपूर्वकरण नामक अष्टमगुणस्थान पर पहुंचता है ।। १४ ।।
इस गुणस्थानमें भिन्नसमयवर्ती जीव, भिन्न और पूर्व समयमें कभी प्राप्त नहीं हुए ऐसे अपूर्व परिणामाको धारण करते हैं, इसलिये इस गुणस्थानका नाम अपूर्वकरण है ॥१९॥
९ अनिवृत्तिकरण अन्तर्मुहूर्तमात्र अनिवृत्तिकरणके काल से आदि या मध्य या अन्तके एक समयवर्ती अनेक जीवोंमें जिसप्रकार शरीरकी अवगाहना आदि बाह्यकारणोंसे तथा ज्ञानावरणादिक कर्मके क्षयोपशमादि अन्तरङ्ग कारणोंसे परस्परमें भेद पाया जाता है, उस प्रकार जिन परिणामों के निमित्तसे परस्परमें भेद नहीं पाया जाता उनको
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