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गुणस्थान
सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर जो मिश्र-रूप परिणाम होता है उसको तीसरा मिश्रगुणस्थान कहते हैं ॥७॥
जिस प्रकार दही और गुड़को परस्पर मिला देने पर फिर उन दोनों को पृथक् नहीं कर सकते ( उस द्रव्य के प्रत्येक परमाणुका रस मिश्ररूप खट्टा और मीठा मिला हुआ होता है ) उसी प्रकार मिश्र परिणामों में भी एक ही कालमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप परिणाम रहते हैं, ऐसा समझना चाहिये ॥८॥
सम्यक्मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीव सकल संयम या देश संयमको ग्रहण नहीं करता, और न इस गुणस्थानमें आयुकर्मका बन्ध ही होता है । तथा इस गुणस्थान वाला जीव यदि मरण करता है तो नियमसे सम्यक्त्व या मिथ्यात्वरूप परिणामोंको प्राप्त करके ही मरण करता है, किन्तु इस गुणस्थानमें मरण नहीं होता । ॥९॥
४ अविरत-सम्यक्त्व सम्यग्दर्शनगुणको विपरीत करनेवाली प्रकृतियों में से देशघाति सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होनेपर (तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क और मिथ्यात्व एवं मिश्र, इन सर्वघाति प्रकृतियोंके आगामी निषेकों का सदस्थारूप उपशम और वर्तमान निषेकोंकी बिना फल दिये ही निर्जरा होनेपर ) जो आत्माके परिणाम होते हैं उनको वेदक ( या क्षायोपशमिक) सम्यग्दर्शन कहते हैं। वे परिणाम चल, मलिन या अगाढ़ होते हुए भी नित्य ही (अर्थात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त से लेकर उत्कृष्ट छयासठ सागर पर्यंत) कर्मोंकी निर्जरा कारण हैं ॥१०॥
__ तीन दर्शन मोहनीय, अर्थात् मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व, तथा चार अनन्तानुबन्धी कषाय, इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे उपशम, और सर्वथा क्षयसे क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है । इस (चतुर्थ-गुणस्थानवर्ती) सम्यग्दर्शन के साथ संयम बिलकुल ही नहीं होता; क्योंकि यहांपर दूसरे अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय है। अतएव इस गुणस्थानवर्ती जीवको असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं ॥११॥
सम्यग्दृष्टि जीव आचार्यों के द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान करता है, किन्तु अज्ञानतावश गुरुके उपदेशसे विपरीत अर्थका भी श्रद्धान कर लेता है ॥१२॥
जो इंद्रियों के विषयोंसे तथा त्रस-स्थावर जीवोंको हिंसासे विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्रदेवद्वारा कथित प्रवचनका श्रद्धान करता है, वह अविरतसम्यगाद
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