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Achar
गृहस्थ-धर्म [१] अरहतो की वन्दना करके बारह प्रकार के श्रावक-धर्म को गुरूपदेश के अनुसार संक्षेप में कहता हूँ ।। १॥
सम्यग्दर्शनादि को प्राप्तकर जो कोई मुनियों के पाससे उत्तम समाचारी ( सदाचरण) को सुनता है वह श्रावक कहलाता है ॥ २ ॥
पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत, इस प्रकार श्रावकधर्म बारह प्रकार का होता है ॥ ३ ॥
अहिंसा . स्थूलरूप से प्राणिहिंसा का त्याग आदि (अर्थात् झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का स्थूलरूप से परित्याग ) पाँच अणुव्रत हैं। उनमें से प्रथम स्थूल अहिंसा का स्वरूप वीतराग भगवान् ने इस प्रकार कहा है। स्थूलरूपसे प्राणिवध दो प्रकार का होता है---एक संकल्पद्वारा और दूसरा आरंभ द्वारा । श्रावक संकल्प पूर्वक वधका परित्याग कर देता है । ॥४-५ ॥
अब ईयर्यासमिति सहित साधु यदि चलने के लिये अपना पैर उठावे और उसकी चपेट में आकर कोई कुलिंगी (द्वीन्द्रियादि जीव) मर जाय, तो उस साधुको उस वधके निमित्तसे सूक्ष्म भी कर्मबंध शास्त्रमें नहीं बतलाया, क्योंकि वह साधु तो प्रमादरहित आचरण कर रहा है, और हिंसा तो प्रमादसे होती है; ऐसा कहा गया है ॥ ६-७ ॥
इस अहिंसाणुव्रतको धारण करके उसके पूर्णतः पालनके लिये तत्संबंधी अतीचागेको विधिवत् जानकर उनका प्रयत्नपूर्वक निवारण करना चाहिये ।। ८ ॥
___ क्रोधादिके कारण दूषितमन होकर गौ व मनुष्प आदिको बांधकर न रक्खे, उनकी मार-पीट न करे, अंगोंको न छेदे, आधिक भार न लादे तथा उनको भूखे-प्यासे न रक्खे ॥९॥ ___सजीवोंकी रक्षा के लिये जलको परिशुद्ध करके पिये तथा लकड़ी, धान्य आदि को ग्रहण करके भी विधि पूर्वक उनका उपभोग करे ॥१०॥
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