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छह द्रव्य : सात तत्त्व : नौ पदार्थ
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जिससे शरीर, इन्द्रिय आदिकी उत्पत्ति होती है, अतएव इस अपेक्षासे जीव मूर्तिमान् भी कहा जा सकता है ॥७॥
___ व्यवहारनयकी अपेक्षासे जीव पुद्गल कर्मों आदिका कर्ता है, निश्यनयकी अपेक्षासे जीव चेतनकर्मों अर्थात् चिन्तनात्मक क्रियाओंका कर्ता है, तथा शुद्धनयकी अपेक्षासे जीव शुद्ध भावोंका को है ॥८॥
__ जीव दो प्रकारके होते हैं : स्थावर और त्रस । पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये नाना प्रकारके एकेन्द्रिय जीव स्थावर कहलाते हैं। तथा संखादिक द्वीन्द्रिय, चींटी आदि त्रीन्द्रिय, भ्रमर आदि चतुरेन्द्रिय व पशु पक्षी आदि पंचन्द्रिय जीव त्रस कहलाते हैं ॥९॥
२ अजीव ____ अजीव द्रव्य पांच प्रकारका जानना चाहिये-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल | इनमें पुद्गल द्रव्य मूर्तिमान् होता है और उसमें पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध और आठ स्पर्शरूप गुण पाये जाते हैं । शेष धर्मादि द्रव्य अर्मूत हैं ॥१०॥
पुद्गल शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, उद्योत, आतप ये सब पुद्गल द्रव्यके ही पर्याय हैं ॥११॥
धर्म जिस प्रकार गमनशील मछलियों के गमनकार्यमें जल सहायक होता है, उसी प्रकार गतिकार्यमें प्रवृत्त हुए पुद्गल और जीवकी गमनक्रियामें जो सहायक होता है वह धर्म द्रव्य है। किन्तु स्थिर रहनेवाले जीव व पुद्गलों का वह गमन नहीं कराता ॥१२॥
अधर्म जिस प्रकार पथिकोंके ठहरनेमें छाया कारणीभूत होती है, उसी प्रकार पुद्गल और जीव द्रव्य के स्थित होने में अधर्म द्रव्य सहकारी कारण है। किन्तु वह गमन करते हुए जीव व पुद्गलको रोकता नहीं ॥१३॥
__ आकाश जीवादि द्रव्यों को अवकाश देनेमें समर्थ जो द्रव्य है उसे आकाश जानिये यह आकाश दो प्रकारका है-लोकाकाश और अलोकाकाश । जितने आकाश प्रदेशमें धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव ये द्रव्य पाये जाते हैं वह लोक है, और उससे परे (जहां उक्त द्रव्योंका वास नहीं) वह भलोकाकाश है ॥१४॥
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