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Achan
परीषह
२१ अज्ञान परीषह "मैं व्यर्थ ही मैथुनसे निवृत्त हुआ (गृहस्थाश्रम छोड़कर ब्रह्मचर्य धारण किया) व्यर्थ ही इंद्रियों का दमन किया क्योंकि धर्म कल्याणकारी है या अकल्याणकारी, यह प्रत्यक्ष रूपमें तो कुछ दिखाई नहीं देता ( अर्थात् जब धर्मका फल प्रत्यक्ष नहीं दीखता है तो मैं कष्ट क्यों सहूँ ? ) ॥ ४२ ।।
(अथवा ) तपश्चर्या ग्रहण करके तथा साधुकी प्रतिमाको धारण करके बिचरते हुए भी मेरा अज्ञान क्यों नहीं छूटता ? ।। ४३ ।।
इसलिये परलोक ही नहीं है, या तपस्वीकः ऋद्धि ( आणिमा, गरिमा आदि) भी कोई चीज नहीं है, मैं साधुपन लेकर सचमुच ठगा गया इत्यादि प्रकारके विचार साधु मनमें कभी न लावे ॥ ४४ ॥
२२ अदर्शन परीषह बहुतसे तीर्थकर हो गये, हो रहे हैं और होंगे, ऐसा जो कहा जाता है यह झूठ है, ऐसा विचार भिक्षु कभी न करे ॥ ४५ ।।
इन सब परीषहोंको काश्यप भगवान् महावीरने कहा है। इनमेंसे किसी भी परीषह द्वारा कहीं भी पीड़ित होनेपर भिक्षु अपने संयमका घात न होने दे ॥ ४६॥
[उत्तराध्ययन सूत्र-२)
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