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Achar
परीषद
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कठोर, भयंकर तथा श्रवण आदि इन्द्रियोंको कंटकतुल्य वाणीको सुनकर भिक्षु चुपचाप (मौन धारण करके उसकी उपेक्षा करे, और उसको मनमें स्थान न दे ॥ २५ ॥
१३ वध परीषह यदि कोई मारे पीटे तो भी भिक्षु मनमें क्रोध न करे, और न मारनेवालेके प्रति अल्प भी द्वेष रक्खे, किन्तु तितिक्षा अर्थात् सहनशीलताको उत्तम धर्म मानकर धर्मका ही आचरण करे ॥ २६ ॥
संयमी और दान्त (इन्द्रियोंको दमन करनेवाले) साधुको कोई कहीं मारे या वध करे, तो भी वह मनमें 'इस आत्माका तो कभी नाश नहीं होता' ऐसी भावना रखे और संयमका पालन करे ॥ २७ ॥
१४ याचना परीषह गृहत्यागी भिक्षुका तो जीवन नित्य बड़ा ही दुष्कर होता है क्योंकि वह मांगकर ही सब कुछ प्राप्त कर सकता है। उसको बिना मांगे कुछ भी प्राप्त हो नहीं सकता ॥ २८ ॥
भिक्षाके लिए गृहस्थके घर जाकर भिक्षुको अपना हाथ फैलाना पड़ता है और यह रुचिकर काम नहीं है। इसलिये साधुपनेसे गृहस्थवास ही उत्तम हैऐसा भिक्षु कभी न सोचे ॥२९॥
१५ अलाभ परीषह गृहस्थोंके यहां ( जुदी जुदी जगह ) भोजन तैयार हो उसी समय साधु भिक्षाचारीके लिये जाय । वहां भिक्षा मिले या न मिले तो भी बुद्धिमान भिक्षु खेदखिन्न न हो ॥३०॥
"आज मुझे भिक्षा नहीं मिली, न सही, कल भिक्षा मिल जायगी ! एक दिन न मिलनेसे क्या हुआ" जो साधु ऐसा पक्का विचार रक्खे उसे भिक्षा न मिलनेका कभी दुःख न होगा ॥३१॥
१६ रोग परीषह वेदनासे पीड़ित भिक्षु, उत्पन्न हुए दुःखको जानकर मनमें थोड़ी सी भी दीनता न लावे, अपने चित्तको अविचलित रक्खे और तज्जन्य दु:खको समभाव से सहन करे ॥३२॥
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