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परीषह
४ उष्ण परीषह परितापी उष्णतासे, परिदाइसे अथवा ग्रीष्मकालकी गर्मीसे व्याकुल होकर साधु सुखकी परिदेवना (हाय, यह ताप कब शांत होगा! ऐसा क्लांत वचन) न करे ।
गर्मीसे बेचैन तत्त्वज्ञ मुनि स्नान करनेकी इच्छा भी न करे, न अपने शरीरपर पानी छिड़के और न अपने ऊपर पंखा करे ॥९॥
५ दंशमशक परीषह वर्षाऋतुमें डांस मच्छरोंके काटनेसे मुनिको कितना भी कष्ट क्यों न हो, फिर भी वह समभाव रखे और युद्ध में सबसे आगे स्थित हाथीकी तरह, शत्रु (क्रोध) को मारे ॥१०॥
ध्यानावस्थामें ( अपना ) रक्त और मांस खानेवाले उन क्षुद्र जन्तुओंको साधु न त्रास दे, उनका न निवारण करे, और न उनसे थोड़ा भी द्वेष करे । उसे तो उनकी उपेक्षा ही करना चाहिये, हिंसा कदापि नहीं ॥११॥
६ अचेल परीषह वस्त्रों के बहुत जीर्ण हो जानेपर मैं अचेलक होऊंगा अथवा सचेलक रहूंगा, ऐसी चिन्ता साधु कभी न करे ॥१२॥
किसी अवस्थामें वस्त्र रहित हो, और किसी अवस्था में वस्त्र सहित हो, तो ये दोनों ही दशाएँ धर्मके लिए हितकारी हैं। ऐसा जानकर ज्ञानी मुनि खेद न करे ॥१३॥
७. अरति परीषह गांव गांव में विचरनेवाले, किसी एक स्थानमें न रहनेवाले, तथा परिग्रहसे रहित मुनिको यदि कभी संयमसे अरुचि हो तो वह उसे सहन करे ( मनमें अरुचिका भाव न होने दे) ॥१४॥ .
वैराग्यवान् , आत्मभावोंकी रक्षा में निरत, आरंभका त्यागी और क्रोधादि कषायोंसे शांत मुनि, अरतिको पीछे करके (छोड़कर) धर्मरूपी बगीचे में बिचरे ।।१५।।
८ स्त्री परीषह इस संसारमें स्त्रियाँ, पुरुषोंकी आसक्तिका महान् कारण हैं । जिस त्यागीने इतना जान लिया उसका साधुत्व सफल हुआ ॥१६॥
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