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तत्त्व-समुच्चय
भिक्षु औषधि (रोगके इलाज) की इच्छा न करे, किन्तु आत्मशोधक होकर शांत रहे । स्वयं चिकित्सा न करे और न करावे, इसीमें उमका सच्चा साधुत्व है ।।३३।।
१७ तृणस्पर्श परीषह वस्त्र बिना रहने वाले तथा रूक्ष ( रूखे ) शरीर वाले तपस्वी साधुको तृण (दर्भ आदि ) पर सोनेसे शरीर की पीड़ा होती है, या अतिताप पड़नेसे अतुल वेदना होती है, ऐसा जानकर भी तृणों के चुभनेसे भयभीत होकर साधु वस्त्रका सेवन नहीं करते ॥३४-३५॥
१८ मल परीषह ग्रीष्म अथवा अन्य किसी ऋतुमें पसीना, पंक या मैलसे मलिन शरीरवाला बुद्धिमान भिक्षु सुखके लिये व्यग्र न बने ( यह मैल कैसे दूर हो-ऐसी इच्छा न करे ) ॥३६॥
अपने कर्मक्षयका इच्छुक भिक्षु अपने अनुपम आर्थ धर्मको समझकर जबतक शरीरका नाश न हो तब तक ( मृत्युपर्यंत ) शरीरपर मैल धारण करे ॥३७॥
१९ सत्कार पुरस्कार परीषह राजादिक या श्रीमंत हमारा अभिवादन ( वन्दन ) करें, हमारे सन्मानार्थ सन्मुख आकर खड़े हों अथवा भोजनादिका निमन्त्रण करें---इत्यादि प्रकारकी इच्छाएं न करे तथा जो उसकी सेवा करते हैं उनसे अनुराग न करे ॥ ३८ ॥
अल्पकषाय वाला, अल्प इच्छा वाला, अज्ञात गृहस्थोंके यहां ही गोचरी के लिये जानेवाला तथा स्वादिष्ट पक्कानों की लोलुपतासे रहित प्रज्ञावान् भिक्षु रसोंमें आसक्त न बने और न (उनके न मिलनेसे) खेद करे। अन्य किसी भिक्षु का उत्कर्ष देखकर वह ईर्ष्यालु न बने || ३९ ।।
२० प्रज्ञा परीषह “ मैंने अवश्य ही अशान फलवाले कर्म किये हैं जिससे यदि कोई मुझे कुछ पूछता है तो मैं कुछ समझ नहीं पाता हूँ| अथवा उसका उत्तर नहीं दे पाता ॥४॥
__परंतु अब पीछे ज्ञान फलवाले कर्मों का उदय होगा-इस तरह कर्मके विपाकका चिन्तन कर भिक्षु ऐसे समयमें इस तरह मनको आश्वासन दे ।
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