SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्व-समुच्चय भिक्षु औषधि (रोगके इलाज) की इच्छा न करे, किन्तु आत्मशोधक होकर शांत रहे । स्वयं चिकित्सा न करे और न करावे, इसीमें उमका सच्चा साधुत्व है ।।३३।। १७ तृणस्पर्श परीषह वस्त्र बिना रहने वाले तथा रूक्ष ( रूखे ) शरीर वाले तपस्वी साधुको तृण (दर्भ आदि ) पर सोनेसे शरीर की पीड़ा होती है, या अतिताप पड़नेसे अतुल वेदना होती है, ऐसा जानकर भी तृणों के चुभनेसे भयभीत होकर साधु वस्त्रका सेवन नहीं करते ॥३४-३५॥ १८ मल परीषह ग्रीष्म अथवा अन्य किसी ऋतुमें पसीना, पंक या मैलसे मलिन शरीरवाला बुद्धिमान भिक्षु सुखके लिये व्यग्र न बने ( यह मैल कैसे दूर हो-ऐसी इच्छा न करे ) ॥३६॥ अपने कर्मक्षयका इच्छुक भिक्षु अपने अनुपम आर्थ धर्मको समझकर जबतक शरीरका नाश न हो तब तक ( मृत्युपर्यंत ) शरीरपर मैल धारण करे ॥३७॥ १९ सत्कार पुरस्कार परीषह राजादिक या श्रीमंत हमारा अभिवादन ( वन्दन ) करें, हमारे सन्मानार्थ सन्मुख आकर खड़े हों अथवा भोजनादिका निमन्त्रण करें---इत्यादि प्रकारकी इच्छाएं न करे तथा जो उसकी सेवा करते हैं उनसे अनुराग न करे ॥ ३८ ॥ अल्पकषाय वाला, अल्प इच्छा वाला, अज्ञात गृहस्थोंके यहां ही गोचरी के लिये जानेवाला तथा स्वादिष्ट पक्कानों की लोलुपतासे रहित प्रज्ञावान् भिक्षु रसोंमें आसक्त न बने और न (उनके न मिलनेसे) खेद करे। अन्य किसी भिक्षु का उत्कर्ष देखकर वह ईर्ष्यालु न बने || ३९ ।। २० प्रज्ञा परीषह “ मैंने अवश्य ही अशान फलवाले कर्म किये हैं जिससे यदि कोई मुझे कुछ पूछता है तो मैं कुछ समझ नहीं पाता हूँ| अथवा उसका उत्तर नहीं दे पाता ॥४॥ __परंतु अब पीछे ज्ञान फलवाले कर्मों का उदय होगा-इस तरह कर्मके विपाकका चिन्तन कर भिक्षु ऐसे समयमें इस तरह मनको आश्वासन दे । For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy