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तत्त्व-समुच्च
काल द्रव्यके परिवर्तनरूप जो काल है, अर्थात् पदार्थोंमें नया पुराना भेद प्रकट करनेवाला जो पल, घटिका आदि काल विभाग होते हैं, वह व्यवहारकाल कहलाता है, तथा अन्य द्रव्यों के परिवर्तनमें सहकारी कारण होना ही जिसका लक्षण है वह परमार्थ या निश्चय काल द्रव्य है ॥ १६ ॥
लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर जो एक एक रत्नोंकी राशि के समान स्थित हैं वे कालाणु द्रव्य असंख्य हैं ॥ १७ ॥
ये द्रव्य हैं, इसलिये इन्हें जिनेन्द्र भगवान् ‘अस्ति' कहते हैं, और वे कायके समान बहुप्रदेशी हैं, इसलिये वे काय कहलाते हैं । अतः जिन द्रव्यों में यह अस्तित्व और कायत्व दोनों गुण हैं वे 'अस्तिकाय' कहलाते हैं ।। १८ ।।
प्रत्येक जीवमें असंख्य प्रदेश हैं, तथा धर्म, अधर्म व आकाशमें अनन्त प्रदेश हैं, एवं मूर्तिमान् पुद्गल द्रव्यमें संख्य, असंख्य व अनन्त, तीनों प्रकारसे प्रदेश पाये जाते हैं। किन्तु काल द्रव्य एकप्रदेशात्मक ही होता है इसीलिये काल 'अकाय' कहलाता है ।। १९ ।।
अणु एक प्रदेशी है, तथा नानाप्रकार के द्वयणुकादि स्कन्ध प्रदेशोंके भेदसे पुद्गल बहुप्रदेशी भी होता है। अतः कायके समान बहुप्रदेशों के संचयरूप होनेसे सर्वज्ञ उसे उपचार से 'काय' कहते हैं ।। २० ।।
___ अब जीव और अजीव द्रव्योंकी जो आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप रूप विशेष पर्यायें होती हैं उन्हें भी संक्षेपतः कहते हैं ॥२१॥
३ आस्रव __ जीव अपने जिस परिणामके द्वारा कर्मका आस्रव करता है उसे जिन भगवान द्वारा कहा हुआ भाव-आस्रव जानना चाहिये, तथा उन परिणामों के निमित्तसे जो कर्म पुद्गलों का आस्रव होता है वह दूसरा द्रव्यास्रव है ॥२२॥
पांच प्रकारका मिथ्यात्व (विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान), पांच प्रकारकी अविरति (हिंसा, चोरी, झूठ, कुशील और परिग्रह ), पन्द्रह प्रकारका प्रमाद ( चार विकथा-स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और राजकथा; चार कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभका मंद उदय; पांच इंद्रिय-स्पर्शन, र सन, प्राण, चक्षु, और श्रोत्र इनकी प्रवृत्ति; निद्रा और प्रणय) तीन योग (मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ ) और चार कषाय (क्रोध, मान, माया लोभका तीव्र उदय ) ये पूर्वोक्त भावास्रवके भेद हैं ॥२३॥
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