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तत्त्व-समुच्चय
जो आपको क्षमादि दक्षलक्षणरूप भावसे परिणत करे वही अपना आप शरण है। किंतु जो तीव्र कषायोंसे आविष्ट है वह अपने द्वारा अपना ही घात करता है ॥११||
३ संसार भावना जीव एक शरीरको छोड़ता है और दूसरा ग्रहण करता है। फिर नया ग्रहण कर पुनः उसे छोड अन्य ग्रहण करता है। ऐसे बहुत बार ग्रहण करता और छोडता है ॥१२॥
मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत व एकान्तादि रूपसे वस्तुका श्रद्धान, तथा कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ, इनसे युक्त इस जीवका अनेक देहों अर्थात् योनियों में भ्रमण होता है । यही संसार है ।।१३||
इस प्रकार संसारके स्वरूपको जानकर सर्व प्रकार उद्यम कर मोहको छोड़, हे भव्य, उस आत्म-स्वभावका ध्यान कर, जिससे संसारके भ्रमणका नाश हो ॥१४॥
४ एकत्व भावना जीव अकेला उत्पन्न होता है, अकेला ही गर्भमें देहको ग्रहण करता है; अकेला ही बालक व जवान होता है और अकेला ही जरा-ग्रसित वृद्ध होता है ||१५|| _ अकेला ही जीव रोगी होता है, शोक करता है तथा अकेला ही मानसिक दुःखसे ततायमान होता है। बेचारा अकेला ही मरता है और अकेला ही नरकके दुःख भोगता है ॥१६॥
हे भव्य ! तुम सब प्रकार प्रयत्न करके जीवको शरीर से भिन्न और अकेला जान लो । जीव को इस प्रकार जान लेने पर समस्त पर-द्रव्य क्षणमात्र में हेय हो जाते हैं ॥ १७ ॥
५ अन्यत्व भावना ___ यह जीव एक शरीर छोड़कर कर्मानुसार दूसरा ग्रहण करता है तथा अन्य ही इसकी जननी व भार्या होती हैं और वे अन्य ही पुत्र को जन्म देते हैं ॥१८॥
इस प्रकार यह जीव सब बाह्य वस्तुओं को आत्मासे भिन्न जानता है और जानता हुआ भी उन पर द्रव्यों में ही राग करता है । यह इसकी मूर्खता है ॥१९॥
जो कोई देहको जीवके स्वरूपसे तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्मस्वरूपका ही सेवन करता है उसकी अन्यत्व भावना कार्यकारी है ॥ २० ॥
६ अशुचि भावना हे भव्य ! तू इस देहको अपवित्र जान । यह देह समस्त कुत्सित वस्तुओं का पिंड है, कृमि-समूहोंसे भरा हुआ है, अपूर्व दुर्गन्धमय है, तथा मल-मूत्रका घर है ।।२१॥
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