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तत्त्व-समुच्चय
५. प्रतिस्थापन असंयमी जनके गमनरहित एकांतस्थान, हरितकाय व त्रसकाय रहित अचितस्थान, दूर, छिपा हुआ, बिलछेदरहित चौड़ा, और लोक जिसकी निंदा व विरोध न करें ऐसे स्थानमें मूत्रविष्ठा आदि देहके मलका क्षेपण करना यह प्रतिष्ठापना समिति है ॥१५॥
इन्द्रियनिग्रह-५ चक्षु, कान, नाक, जीभ, स्पर्शन, इन पांच इंद्रियों को अपने अपने रूप, शब्द, गंध, रस, तथा ठंडा गर्म आदि स्पर्शरूप विषयोंसे सदैव साधुको रोकना चाहिये ॥१६॥
१. चक्षु नि० सजीव व निर्जीव पदार्थों के गीत नृत्यादि क्रियाभेद, समचतुरस्त्रादिसंस्थान भेद, गोरा काला आदि वर्ण भेद, इस प्रकार सुंदर असुंदर इन भेदोंमें रागद्वेषादि भावना का निरोध, यह मुनि का चक्षुनिरोधव्रत है ॥१७॥
२. श्रोत्र नि० षड्ज, ऋषभ, गांधार, आदि सात स्वररूप जीवशब्द और वीणा आदिसे उत्पन्न अजीवशब्द, ये दोनों प्रकार के शब्द, रागादि के निमित्तकारण हैं, इसलिये इनको नहीं सुनना, यह श्रोत्रनिरोध है ॥१८॥
३. घ्राण नि० स्वभावसे गंधरूप तथा अन्य सुगंधी द्रव्य के संस्कार से सुगंधादिखरूप, ऐसे सुख दुःख के कारणभूत जीव अजीवस्वरूप पुष्प, चंदन आदि द्रव्यों में रागद्वेष नहीं करना, यह मुनिवर का घ्राणनिरोध व्रत है ॥१९।।
४. जिह्या नि० भात आदि अशन, दूध आदि पान, लाडू आदि खाद्य, इलायची आदि खाद्य, ऐसे चार प्रकारके तथा तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल व मधुर, इन पांच रसरूप आहारके दाताजनों द्वारा दिये जानेपर आकांक्षारहित परिणाम होना, वह जिह्वाजय नामक व्रत है ॥ २० ॥
५. स्पर्श नि० चेतनस्त्री इत्यादि जीवमें और शय्या आदि अचेतनमें उत्पन्न हुआ कठोर
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