Book Title: Solahkaran Dharma Dipak Author(s): Deepchand Varni Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia View full book textPage 8
________________ सोलहकारण धर्म । है इसलिये व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है। जीवादि तत्वोंका विवेचन द्रव्यसंग्रह, गोमटसार, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में विशेष रूपसे किया गया है, परन्तु संक्षिप्त रूपसे यहां भी कुछ कहते हैं तत्त्व-पदार्थके यथार्थ स्वरूपको कहते हैं । सो पदार्थको उसके यथार्थ स्वरूप सहित दृढ़ श्रद्धान करना, यही तत्वार्थ श्रद्धान है । तत्वको पदार्थ द्रव्य वस्तु इत्यादि अनेक नामोंसे पुकारते हैं। तत्त्व-मुख्यतया दो प्रकार के हैं-जीव और यजीव । जीव-उसे कहते हैं जो दर्शनज्ञान संयुक्त चैतन्य पदार्थ हो । यह जीव लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी अविनाशी अमू कि अखंड अनन्तानन्त है । उनमें जो जीव सम्पूर्ण कर्मोको नाशकर मोक्षपदको प्राप्त हुए हैं वे सिद्ध जीव कहलाते हैं । वे संसार परिभ्रमणसे रहित स्वस्वरूपमें लीन हुए लोकशिखर के अन्त तनुवातदलय में नित्य शुद्ध परमात्म स्वरूपसे तिष्ठे. हैं । और जो जीव कर्म सहित हैं, वे संसारमें देव, नरक, पशु और मनुष्य आदि चतुर्गतियोंमें नानारूप घरते हुथे, स्वस्वरूपको भूले हुए परिभ्रमण करते हैं। ये संसारी जीव कहाते है वही संसारी जीव कर्मोका नाशकर सिद्ध (परमात्मा) पद प्राप्त करते व कर सकते हैं । ____ अजीव-- उसे कहते हैं जो चसन्यता रहित अर्थात् जड़ हो । उसके छ: भेद हैं अजीव,आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । अजीव दो प्रकार के होते हैं-मूर्तीक और अमूर्तीक । मूर्तीक ( रूपी ) जो स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण सहित हो । इसे पुद्गल द्रव्य भी कहते हैं । यह अण और स्कंध रूपसे १-देखो विश्व तत्त्व चार्ट नं० १ ।Page Navigation
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