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'श्रीपाल का राज्यादि लेकर जान से खत्म कर दूँ ।' काका अजितसेन की इस दुर्बुद्धि का पता चलते ही छोटी उम्र में जान बचाने माता कमलप्रभा श्रीपाल को लेकर भागी ।
बाल्यावस्था में ही सत्ता गई, संपत्ति गई, वैभव गया । जवानी में शरीर मे कोढ़ रोग हो गया, शरीर सड़ गया । श्रीपाल को पड़ोसियों के सुपुर्द कर माता औषधि लेने कौशांबी गई और आई नहीं । श्रीपाल माँ से भी बिछड़ गया। कोढ़ से घबराकर पड़ोसीयों ने छोड़ दिया । अंततः सात सौ कोढ़ीयों के समूह में मिल गया । इतना होने पर भी कहीं निराशा नहीं है, नहीं मरने का विचार है । शरीरमें भयंकर जलन होने पर भी चेहरे पर कोई उदासीनता नहीं है । किसी के प्रति नफरत या तिरस्कार भी नहीं है ।
उंबर राणा का स्वरुप कैसा बेहूदा है । शरीर में कुष्ठ रोग है, कुरुपता का राज है, सतत पीप निकल रहा है, शरीर पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं । रास्ते से गुजरता है तो लोग पूछते है, "कौन है यह । भूत, प्रेत या पिशाच?” कोई उसे मानवरुप में स्वीकारने के लिए भी तैयार नहीं है । उसका स्वरुप देखकर पशु भी ड़र जाते हैं । "ढोर खसे कुतरा भसे धिक् धिक् करे पुरलोक’” यह वर्णन प्रसिद्ध है । इतना होने पर भी उंबर प्रसन्न है, अंतर में अदम्य उत्साह है, दुःख दर्द की रेखा नहीं है । जो स्थिति आई है, उसे सहजतासे स्वीकार कर ली है। उंबर की यह भूमिका मयणा मिलने के पहले की है ।
हमारे जीवन में कदाचित् कर्मोदय पलटे और जो थोड़ा बहुत मिला है, वह भी चला जाए, परिवार से बिछुड़ जाए, शरीर बराबर काम नहीं कर सके तो हमारी हालत क्या हो ? शुभ कर्म के उदय में जो आनंद है वो आनंद अशुभ के उदय में कहा टिकता है ? उंबर को जब तक मयणा नहीं मिली, धर्म नहीं मिला, सिद्धचक्रजी नहीं मिले, उसके पहले ही जन्मजातसहज समझ तो मिली ही है।
पुण्य-पाप के उदय से महत्त्वपूर्ण आत्मा की भूमिका है । सूर्योदय से
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा