Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 83
________________ नवपद अरिहंत सिद्ध दोषहानि क्षुद्रता लाभरति दीनता मात्सर्य भय आचार्य उपाध्याय गुणप्राप्ति सर्वजीव मैंत्री आत्मगुण रति खुमारी, शौर्यता गुणानुराग निर्भयता सरलता ज्ञान सफलारंभी साधु शठता दर्शन ज्ञान चारित्र, तप अज्ञानता निष्फलारंभी संक्षेप में इतना समझने के बाद दोषों का स्वरुप, नवपद-स्वरुप और श्रीपाल के सहज गुण-प्राप्ति का स्वरुप सोंचे - १) क्षुद्रता - क्षुद्रता यानि तुच्छता, मात्र स्वार्थवृत्ति । अपनी स्वार्थ सिद्धि की धूनवाला दूसरों के नुकसान या खुद को भी भवांतर में होने वाले नुकसान को दीर्घ या सूक्ष्म दृष्टि से देख ही नहीं सकता । उसे दूसरों का भला करने का भी विचार नहीं आता । कदाचित् विचार आ भी जाए, तो भी गहरे-गहरे भी स्वार्थ वृत्ति का ही पोषण होता है । हृदयमें माया खेलती हो और वर्तन में भी घुली होती है । इस क्षुद्रता के प्रभाव से आपप्रशंसा, माया, झूठ, परनिंदा आदि अनेक दुर्गुणो का पोषण करता है, इसमें ही आनंद मानता है । संसार बढ़ाता ही जाता है । वो जैसे जैसे पापकर्म से भारी होता है, वैसे वैसे उसे आनंद आता है । जीवन में कही उम्दावृत्ति, हृदयकी विशालता, परोपकार वृत्ति जैसे गुण देखने को नहीं मिलते । ___ अरिहंत परमात्मा की आराधना से इन गुणों की प्राप्ति होती है । क्षुद्रवृत्ति विलीन हो जाती है । अरिहंत प्रभु के हृदय में सर्व जीवों से मैत्री, निःस्वार्थ परोपकार, हैरान-परेशान करने वालो के प्रति भी करुणा-भाव, दुश्मन के प्रति भी दुश्मनी नहीं, उल्टे उसके कल्याण की उदात्त भावना बसती है । ऐसे प्रभु की आराधना से हमारे हृदय में रही हुई तुच्छता, स्वार्थ भावना श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा

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