Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 89
________________ भी तरह की हाय-हाय नहीं की । अब मैं क्या करूंगा? ऐसा विचार भी नहीं आया । दरिये में धक्का दिया तब तो मौत सामने दिख रही है, संपत्ति, पत्नियाँ छूट गए तो भी मुँह से 'णमो अरिहंताणं' ही निकलता है । ऐसी स्थिति हमारी आए तो, हमारे मुँह से क्या निकलेगा ? पुण्य चले जाने पर संपत्ति, वैभव चले जाएँ या बाप-दादा की मिलकत चली जाएँ, तो पूर्वकालीन श्रीमंतता के गीत दूसरों के आगे कितनी बार गाते है ? यह सब दीनता है । किसी न किसी कर्म के उदय से शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक, व्यापारिक या आर्थिक उपाधि, तकलीफें आती रहती है । ऐसी स्थिति में उंबर-श्रीपाल का आलंबन लेकर आचार्यपद की आराधना-ध्यान के प्रभाव से इस दीनता को बिदा करना है । दीनता जाए, खुमारी प्रगटे और आत्मगुणों का वैभव दिखाई दे । आर्त्तध्यान से मुक्त बने । परमपद की यात्रा प्रारम्भ हो । ४) मात्सर्य (ईर्ष्या)- भवाभिनंदी का चौथा दुर्गुण है मात्सर्य...मात्सर्य यानि ईर्ष्या...असहनशीलता । दूसरो का अच्छा देखकर मुँह बिगड़े, जलन हो कि मुझसे ज्यादा उसे क्यो मिला । फिर वह संपत्ति हो, इज्जत हो, ज्ञान हो या तप हो । मात्सर्य से कदाचित् अन्य को नुकसान हो, या नहीं हो, पर अंतरआत्मा को तो मात्सर्य जला ही देता है । क्रोध भी आत्मा को जला देता है, पर उस क्रोध की आग को सब देख सकते है । वो बाहर की आग है, तो ईर्ष्यामात्सर्य अंदर की आग है। बाहर से तो शांत लगता है परंतु स्वयं ही अपनी आत्मा को जलाता है । अपने से कोई आगे नहीं आना चाहिए । दूसरो को हीन बनाकर खुद के आगे बढ़ने की दुष्ट भावना आत्मा को भयंकर कर्म बंधन करवाकर दुर्गति के द्वार खुलवा देती है । अनंत-शक्ति और अव्याबाध सुख के स्वामी आत्मा को कौन सी भूमिका खटकती है ? समाज में किसी को पुण्योदय से हम से अच्छी सामग्री मिल जाए, तो हमें कौन सा विचार आता है! अरे ! यह मुझसे आगे निकल गया है, अब इसे पीछे कैसे करूं ? मैं कैसे आगे निकलूँ ? श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा 73

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