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यह सोचा है ? स्वर्णसिद्धि भी छोड़ी, महाकाल राजा को जीतने से मिला राज्य भी छोड़ा । धवल इर्ष्यालु है, इसे व्यापार सौंपूगा तो 'अधिक भाव में खरीदा
और कम भाव में बेचा' ऐसा बताएगा । नुकसान का पता है फिर भी चिंता किए बगैर प्रसंग-प्रसंग पर धवल को व्यापार सौंपते है । मेरे पुण्य में होगा तो क्या ले जाएगा? यदि लाभ का आनंद, संपत्ति की आसक्ति हो तो यह कैसे हो सकता है ? सिद्धपद की आराधना के माध्यम से लाभ-रति दुर्गुण छोड़ना है । ध्यान आराधना द्वारा सिद्धपद में लीन बनकर आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में रहे अनंत अव्याबाध आनंद की प्रतीति करना है । एकबार भी आत्मानंद की श्रद्धा होगी, प्रतीति होगी तो प्राप्त करने की रुचि होगी, यानि बाह्य पौद्गलिक पदार्थो में से मिलने वाला आनंद तुच्छ लगेगा । फिर चाहे जितने भोग-विलास के साधन मिले, अपार संपत्ति मिले । सिद्ध परमात्मा के अनुग्रह के प्रभाव से अंतर में आनंद रति नहीं होती । संपत्ति-पदार्थ मिले पर उनका प्रभाव आत्मा पर नहीं पड़े यह सिद्धपद की आराधना का फल है । ध्यान-साधना की इस भूमिका को सिद्ध कर भवाभिनंदिता का दूसरा दोष लाभ-रति टालना है। (३) दीनता – बात-बात में बुरा लगना, सदा रोते रहना । जो मिला है उसमें संतोष के बदले, जो नहीं मिला उसका आर्तध्यान करना। जो मिला है उसमें भी कमियाँ ही नजर आना । छोटी-बडी जैसी भी तकलीफ आए, और रोना-गाना शुरु, राई का पर्वत बनाए ऐसे जीव कभी भी और कहीं भी शांति नहीं पा सकते । कुत्ते की तरह दीन बनकर मांग-मांग करने में कोई शर्म नहीं आती । दीन देव-गुरु-धर्म को तो भूलता ही है, साथ में जाति, सम्मान भी भूल जाता है । मैं अकेला हुँ, मेरा कोई नहीं है, मेरा कोई सुनता नहीं है, महेनत करता हुँ पर कुछ मिलता ही नहीं । सब हैरान, परेशान करते है । कहाँ जाऊँ ? क्या करूं? इन विचारो में ही समय गुमाता है । ऐसी दीनता का दास धर्मआराधना तो नहीं कर सकता, व्यवहार भी अच्छी तरह नहीं निभा सकता । दीनता से सत्व नष्ट होने लगता है, आत्मविश्वास टूटता जाता है, विकल्पो की पंक्ति लग जाती है, परंपरा से दीनता बढ़ती जाती है । इस
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा