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मानते है । अजितसेन काका ने बाल्यावस्था में राज्य छीन लिया, लौटाते भी नहीं है, श्रीपाल को जान से मारने के लिए युद्ध में स्वयं आते है, तो भी श्रीपाल कहते है कि, आपका उपकार है कि आपने मेरा राज्य सम्हाला, यह गुणानुराग दृष्टि है । उपाध्याय पद की आराधना-ध्यान द्वारा गुणानुराग दृष्टि विकसित कर, मत्सर दुर्गुण दूर करने का प्रयत्न करता है । (५) भय - दुर्ध्यान का प्रबल कारण भय है । भयभीत इंसान कुछ भी नहीं कर सकता, सतत चिंताग्रस्त ही रहता है । महेनत करे, फल नहीं मिले तो भय–चिंता, मिला हुआ सब चले जाने का भय, कोई परेशान नहीं करे इसका भय, मृत्यु भय, इहलौकिक आदि सात भय शास्त्रो में बताएँ है । भय के कारण नई-नई कल्पनाएँ करके दुःखी होता जीव जीवन को खुद ही कठिन बना देता है । जरा भी कमी, आपत्ति, तकलीफ नहीं आए, इसके भय में सुख-शांति गँवा बैठता है ।
भय के कारण अनेक योजनाएँ बनाता है, जिसमें भरपूर असत्य, प्रपंच, कषाय काम करते है, कभी-कभी रौद्रध्यान होने की संभावना है, ऐसे में आयुष्य बंध हो जाए, तो मर कर नरकादि दुर्गति में जाना पड़ता है और आगे अनेक भवो में भटकना पडता है ।।
इस भय को दूर करने के लिए साधु पद की आराधना है । साधु को कोई भय नहीं होता। न जीने का, न मरने का । परिषह, उपसर्ग, उपद्रव आऐ तो उनका भय नहीं, क्योकि शरीर को अपना माना नही है, सहन करेंगे तो सिद्ध बनेंगे । साधना करे वो साधु, सहन करे वो साधु । 'देह में से मुक्तिमंजिल की ओर आगे बढो' यह सिद्धान्त रुढ हो गया है । साधु हमेशा निर्भय भाव में रमण करता है । आत्मानंद की मस्ती में मस्त हो उसे किसका भय ? परभाव में जाते है तो ही सब भय पैदा होते है । पराई वस्तु को अपना माने तो चली जाने का भय होता है । कर्म द्वारा दी गई वस्तु को साधु अपनी नहीं मानते । साधु कर्म को कह देता है कि तू चमड़ी उतारने आए या घाणी में पीले, सिर पर चमड़े का पट्टा बांधे या अंगारे रखे, मैं तो सर्वत्र निर्भय हूँ,
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा