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वर्तमान में भी सिद्धचक्रजी जैसे विविध पूजनो में पूजन कैसे खंडित होते है, जरा देखे -
१) अरिहंत पद पूजन में बैठनेवाले ने आत्मरक्षा मंत्रस्नान अदि पूर्व विधान किए हो, पर अन्य पूजन या क्षमापना-विधान के समय वो भाई कहाँ घूमते होंगे?
२) अंत में शांतिकलश आदि करने वाला क्षमापनादि विधान करे, परंतु पहले का आत्मरक्षा मंत्रस्नान आदि विधान नहीं किया हो ।
३) बीच के सिद्धपदादि तमाम पूजनो में बैठने वाले न तो आत्मरक्षादि विधान कर पाते है, और न अंतिम विधान स्वरुप क्षमापनादि करते है ।
पूजनमें बैठने वाले तीनो प्रकार के व्यक्तियों को विधिभग्न दोष लगता है , ऐसी स्थिति में पूजन केसे फलीभूत बन सकता है ?
परिवार के सभी स्वजनो को लाभ मिले ऐसे सुंदर शब्दो द्वारा अपने से होने वाली अविधि, खंडितता को ढंक देते है ।
आश्चर्य तो यह है कि पूजन-विधि के मर्म से अनजान क्रियाकारकों ने ही आयोजक परिवारो को सूची थमा दी होती है कि, इतने जोड़े, इतनी कन्याएँ, इस पूजन में केवल भाई, इसमें मात्र बहने चाहिए, 'पूजन के पहले नामावली तैयार रखना' । विधि-विधान के क्षेत्रमें क्रियाकारकों में विधि के जानकार का विश्वास रखनेवाले गृहस्थ इस विषयमें विचार क्यों करेंगे ? वो तो पूजन में बैठने के लिए परिवार में जोड़े-कन्या आदि की सूची बनाना शुरु कर देते है ।
लगभग ११ लाख वर्ष पूर्व सिद्धचक्र-महिमा को उज्ज्वल बनाने वाले श्रीपाल मयणा ने साढ़े चार वर्ष सिद्धचक्र की आराधना कर अंत में उद्यापन में महोत्सवपूर्वक सिद्धचक्र पूजन सविधि पढ़ाया है। इसका विधान सिरि सिरिवालकहा नामक ग्रंथ में क्रमसर दर्शाया गया है।
इस पूजन में श्रीपाल-मयणा एक पूजन के बाद खड़े हो गए होंगे ?
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श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा