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आत्मकल्याण के लिए सर्वत्याग कर साधना करने वाले साधकों को भी यह दोष नहीं छोड़ता, इसके लिए सिंहगुफावासी मुनि का दृष्टांत पर्याप्त है । इस मत्सर दोष के प्रभाव से उच्च साधना करनेवाले जीव भी संसार में भटकते है, इसलिए मुमुक्षु आत्मा को इस दोष को तिलांजलि देना जरुरी है ।
इस दोष से मुक्ति के लिए शास्त्रकार भगवंत उपाध्याय पद की आराधना का निर्देश करते हैं। उपाध्याय भगवान का कार्य है अध्ययनअध्यापन । साधुओ को पढ़ाते है, वात्सल्य देते है, उपबृंहणा करते-करते कर्म की विचित्रता से आर्त्तध्यान के शिकंजे में जकडाएँ हुएँ आत्माओ को समझाकर, प्रेम-वात्सल्य में भीगे शब्दो से शांत कर देते है । उन्हें संयम और अभ्यास में स्थिर करते है । छोटे-छोटे साधु अपने से आगे निकले, यही भावना रखते है । गुणानुराग में ही खेलते रहने से अपनी शक्ति से भी ज्यादा शिष्यो की शक्ति प्रगट करने का काम उपाध्याय भगवंत करते है । जीवन में कहीं ईर्ष्या, मत्सर, असूया का नाम नहीं । जैसे-जैसे साधु अपने से आगे बढ़ते दिखे, वैसे वैसे आनंद में डूबते जाते है । ये गुणानुरागी के लक्षण है । उपाध्याय भगवंत की आराधना, जाप, ध्यान, साधना से अंतर में जमा हुआ मात्सर्य भाव पिघलता है और गुणानुराग में परिवर्तित होता है और दिनोदिन वृद्धि पाता है । अपने छोटे भी शिष्य को आगे बढ़ते देख उपाध्याय भगवान को जैसे गुणानुराग होता है, वैसे हमारे जीवन में भी दूसरो के प्रति गुणानुराग प्रगट होता है और परसुकृत अनुमोदना का झरना अंतर में बहने लगता है, फिर जीवन कितना शांत, निर्मल, निर्दोष और आनंदमय बन जाता है !
श्रीपाल के जीवन में कहीं असूया, ईर्ष्या नहीं है । अपना सब चला गया । सत्ता, संपत्ति, परिवार कुछ नहीं रहा, ऐसी अवस्था में भी औरों को देखकर ईर्ष्या नहीं होती । हृदय में मात्सर्य नहीं है । श्रीपाल की स्थिति देखकर धवल को ईर्ष्या होती है । सब लेने की साजिश रचता है । धवल की खराब नियत की जानकारी होने पर भी श्रीपाल को कभी धवल से नफरत नहीं हुई उल्टे यही सोचा कि धवल मुझे अपने जहाज (किराया लेकर भी) में लाए तो मुझे यह सब मिला । धवल मेरे उपकारी है, ऐसा श्रीपाल अंत तक
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा