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शरीर का चाहे जो हो, आत्मा का तो फायदा ही फायदा है, कर्म की निर्जरा हो रही है । असाधक आत्मा को छोटी भी तकलीफ आएँ तो व्याकुल हो जाता है, जबकि साधक साधु को चाहे जितनी तकलीफ आए तो भी आत्मा की मस्ती में आनंद मनाते है । साधु पद की आराधना से ऐसी अवस्था प्राप्त होती है । श्रीपाल को पूर्वभव की आराधना के प्रभाव से जीवन में कही भय नहीं है । सामान्य रुप से सोचे तो श्रीपाल के जीवन में भय के निमित्त कितने सारे मिले, तो भी सर्वत्र निर्भय । धर्म-सिद्धचक्रजी मिलने से पहले और बाद में भी श्रीपाल निर्भय है । सत्ता, संपत्ति, परिवार सब चला गया, तो भी कोई चिंता नहीं । वर्तमान में ही जीव को आनंद पाना है । संपत्ति पाने अकेले निकले है । धवल के सैनिक पकड़ने आए हो या शीकोतरी को भगाना हो, महाकाल राजा से लड़ना हो या स्वयंवर के समय राजाओं या राजकुमारो से लड़ना हो, कहीं डर नहीं है । मैं क्या करूंगा ? मेरा क्या होगा ? ऐसा कोई विचार नहीं है । धवल दरिये में फेंकता है, मृत्यु सामने खड़ी है, तो भी अरिहंत का स्मरण करते है, पत्नि, संपत्ति की जरा भी परवाह नहीं करते । निर्भयता से चित्त-समाधि की भूमिका प्राप्त होती है, जबकि भय सतत चिंता करवाता है, मन में बेचैनी रहती है । भय संक्लिष्ट परिणाम को अति संक्लिष्ट करता है । निर्भयता मोक्ष-मार्ग को सरल कर देती है । भवाभिनंदी के लक्षण स्वरुप भय जाग्रत होगा तब तक मोक्ष-साधना में डग भी नहीं भरा जा सकता । साधुपद की आराधना, ध्यान, वैयावच्च भक्ति के माध्यम से इस दोष को टालने का प्रयत्न करता है। (६) शठता – शठता यानि माया, लुच्चाई, स्वभाव से वक्र, कपटी बात-बात में लोगों को ठगने की ही बात । विश्वासघात करते भी देर नहीं, अफसोस भी नहीं । यह पाप करते जगत में दिखे भी नहीं और बहुत होशियार है ऐसा लोगो में दिखे । कोई लेना-देना भी नहीं हो तो भी स्वभाव से ही वक्र बुद्धि सूझती है । आडे-टेढ़े कार्य करता है । स्वार्थ के पोषण में उलटा सीधा करता है। सरलता नहीं होती । कोई समझाएँ तो भी समझता नहीं हैं । ये सब भवाभिनंदिता के लक्षण है । अनंतकाल से आत्मा में उल्टी चाल की
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा