Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 85
________________ था । परचिंता, दुश्मन के प्रति भी मित्रता के उदात्त गुण थे । हमें भी अरिहंत परमात्मा के ध्यान, आराधना द्वारा प्रथम दोष को तिलांजलि देकर गुण- —वैभव की वृद्धि करना है । क्षुद्रता अरिहंत की ध्यान साधना में एकाकार बनने से प्रभु के अनंतगुणों के साथ हमारी आत्मा का लय संबंध बंधता है । साधक आत्मा में अनुग्रह का स्त्रोत बहता है । अनंतजीवो में व्याप्त प्रभु की करुणा आत्मा के हर प्रदेश में व्यापक बनकर अंतर की अनादि मलिन वृत्तियों और तुच्छ स्वार्थ भावो को दूर कर परोपकार, वात्सल्य भाव और मैत्रीभाव आत्मा में जागृत करती है । परिणामतः शुरु में छोटी छोटी बातों को छोड़ देने की वृत्ति जागती है । अरिहंत के ध्यान-साधनादि के माध्यम से शुभभाव अधिकाधिक स्थिर होते जाते है, फिर विपरीत परिस्थिति में भी उपकार, मैत्री, समाधि टिकी रहती है । 'जिन उत्तम गुण गावता - ध्यावता गुण आवे निज अंग' यह पंक्ति चरितार्थ करें । (२) लाभरति – लाभ=पदार्थो की प्राप्ति, रति=आनंद । जैसे जैसे पुण्य के साथ पुद्गल–संपत्ति, वैभव, सोना, चांदी, जवाहरात आदि का लाभ होता है, वैसे-वैसे खुश होता है । अंतर में लोभदशा जागती है । संतोषी जीव उसे मूर्ख लगता है । पौद्गलिक भावों को ही सर्वस्व मानता है । एक ही महेनत और एक ही विचार 'ज्यादा और ज्यादा इकट्ठा करो और मजे करो । धन, माल में इतना आसक्ति भाव होता है कि वे प्राण से ज्यादा प्रिय बन जाते है । इसमें से मिलने वाली रति, आनंद, भवोभव भटकाते है । रात-दिन एक ही रटन 'इकट्ठा करो–इकट्ठा करो' । उसे सपने में भी विचार नहीं आता है कि यह सब यहीं छोड़कर जाना है । जैसे-जैसे संपत्ति के साधन मिलते जाते है वैसे-वैसे आनंद होता जाता है, यह लाभ - रति है । पौद्गलिक लाभ - रति के प्रभाव से संसार में भवभ्रमण चलता ही रहता है । 1 यह दुर्गुण सिद्धपद की आराधना से टलता है । सिद्धपद की आराधना, ध्यान, चिंतन करे तो आत्मा के अनंत गुणो की ओर लक्ष्य जाता श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा (69)

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