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पिघलने लगती है । कदाचित् किसी पापकर्म के उदय से भारी आफत आ गई हो तो हम भी दूसरों का नुकसान नहीं देख सकते । कहीं स्वार्थ भाव नहीं दिखता । दूसरो का भला करने की शक्ति नहीं भी हो, पर उसका दुःख कब दूर हो ? ऐसा भाव होता है । अरिहंत प्रभु की आराधना से उपादान शुद्धि हुई हो तो दोषहानि और गुणप्राप्ति होती है ।
एक कल्पना किजीए । बेटे के कमाने –धमाने का ठिकाना नहीं हो, उम्र हो गई हो, और आपकी इज्जत के प्रभाव से अच्छे घर की होशियार सुंदर लडकी का रिश्ता आए, तो क्या करेंगे ? आपके बेटे का काम निपट रहा है, पर सामने वाले की जिंदगी धूल-धानी हो रही है, ऐसी स्थिति में आप क्या करेंगे? धर्म करना अलग बात है और धर्मी बनना अलग बात है । हम धर्मक्रिया से संतुष्ट हो जाते है, पर अंतर में धर्म कितना परिणत हुआ ? इसका विचार भी नहीं करते । जैसे सूर्योदय होने से पहले प्रकाश होता है, ऐसे वास्तविक धर्म मिलने से पहले अंतर में गुण प्रकाश होता है । हृदय से क्षुद्रता चली जाती है, उदार और उदात्त भावना प्रकट होती है । यह उपादान शुद्धि का पहला पायदान है । नींव का गुण है । उंबर अपनी परिस्थिति के समकक्ष कन्या की खोज में थे और अप्सरा जैसी राजकन्या मिली । उंबर प्रजापाल को मना करते है, 'न घटे कंठे काग ने रे, मुक्ताफल तणी माला' कहकर अपनी जात को कैसा घोषित करते है ? इधर मयणा ने उंबर का हाथ पकड़ लिया । मयणा को आनंद है, सात सौ कोढ़ियो को आनंद है, पर उंबर का तेज फीका हो गया है । मेरे निमित्त इसका क्या होगा, यह चिंता खाए जा रही है । ठिकाने पहुँचने के बाद पूरी रात यही समझाते है कि, 'मयणा ! अभी भी समय है, अपना जीवन खत्म मत कर । यह रोग तुझे भी हो गया, तो तेरे सपने चूर-चूर हो जाएंगे । आराधक आत्मा उदात्त भावना वाला होता है, जीवन में कहीं क्षुद्रता, तुच्छ भाव नहीं होते, दूसरों का नुकसान न देख सकता है, न सह सकता है
अरिहंत परमात्मा की आराधना से क्षुद्रता दोष दूर होता है और मैत्री-गुण की प्राप्ति होती है । उंबर में क्षुद्रता का अभाव सहज रुप में
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा