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10. नवपद बनाए...भवाभिनंदी से आत्मानंदी
सिद्धचक्र की भावपूर्वक की गई आराधना परंपरा से तो मोक्ष दिलाती है, एक दिन की आराधना भी इहलौकिक आपत्तियों को दूर करती है । नौ दिन या जीवनभर की आराधना अनासक्त भाव की संपत्ति, वैभव देकर अनुक्रम से मोक्षमार्ग में आगे बढ़ाती है । यह बात श्रीपाल के दृष्टान्त से सहज ही समझ में आ जाती है । हम वर्षो से धर्म-आराधना, सिद्धचक्र आराधना करते है, पर परिणाम नहीं दिखता है, तो श्रीपाल को पहली बार में आराधना फली तो हमे क्यो नहीं फलती ? यह प्रश्न स्वाभाविक है ।
पंचसूत्रादि ग्रंथो में दो तरह की धर्मक्रिया बताई है-सबीज और निर्बीज । निर्बीज क्रिया वंध्या है, निष्फल है । अनेक भवो तक किए जाने वाले धर्मानुष्ठान में कितना संसार घटा, इसकी कोई निश्चितता नहीं, कोई गारण्टी नहीं, क्योकिं बीज ही नहीं है तो फल की आशा कैसे रखी जा सकती है ? धर्म आराधना, संयम, तपश्चर्या सब होती है, पर उसकी भूमिका में तत्वश्रद्धा मोक्षरुचि, संसार-निर्वेद आदि आवश्यक है, और ये आते है कर्मो की लघुता से, मंदता से । इस भूमिका के अभाव में चाहे जैसी कष्टदायी क्रियाएँ की जाएँ, उनसे पुण्यबंध जरुर होता है, पर आत्मशुद्धि का फल नहीं मिलता । उसे तो संसार ही अच्छा लगता है, संसार के भोगविलास के साधन ही अच्छे लगते है, ऐसे जीवों को भवाभिनंदी कहा जाता है ।
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा