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पड़ता है । कैसी करुणता!
हमारी जिन्दगी में भी हम सोचते क्या है ? और क्या होता है । कभी सोंचा भी नहीं हो ऐसी परिस्थितियाँ आ खड़ी होती है । उन्हें स्वीकारना ही पड़ता है । अरिदमन राजपुत्र है, क्षत्रिय है, तो भी पत्नि को बचाने के लिए लुटेरो का सामना भी नहीं करता, कायर की तरह भाग जाता है । एक सामान्य इंसान भी अपनी पत्नि की रक्षा के लिए जान तक दे देता है, जबकि अरिदमन तो क्षत्रिय है । युद्ध तो उसके खून में है । आसमान छूने वाला पुण्य जब धरती पर आ जाता है, तब कौन क्या कर सकता है । सुरसुंदरी की पुण्य-लालिमा धूमिल होने लगी है, तीव्र निकाचित अशुभ कर्मोदय शुरु हो गया, तो बिचारे अरिदमन का क्या चलनेवाला था ? उसमें क्षात्रवट होने के बावजूद सुरसुंदरी का दुष्कर्म ही भागने का सुझाता है । कर्म की कैसी करुण स्थिति है । बाह्यरुप में पागल बनी सुरसुंदरी नाटक मंडली में कहाँ-कहाँ भटकती है । अपने आप को भी भूल जाती है । नृत्यांगना बनकर विविध खेल करती है । जगत के जीवों की यही करुण स्थिति है, अपने आत्म स्वरुप को भूलकर कर्म के इशारों पर संसार के रंगमंच पर नाच रहे है।
सुरसुंदरी की नाटक मंडली बब्बर कुल के महाकाल राजा ने खरीदी और बेटी मदनसेना के लग्न के समय दहेज में दे दी । सुरसुंदरी को पता नहीं है, कि मैं जिसके आगे नृत्य कर रही हूँ वो मेरे बहनोई (जीजाजी) ही है । श्रीपाल को भी पता नहीं है कि यह नृत्यांगना मेरी साली है । जब प्रजापाल राजा श्रीपाल के सामने आते है दोनो पक्ष इकट्ठे होते है, तब आनंद के लिए श्रीपाल नाटक शुरु करने का आदेश देते है । नृत्यांगना खड़ी नहीं होती है, तब सबके सामने सुरसुंदरी का रहस्य खुलता है ।
अब मयणा की और दृष्टिपात करते है
मयणा कहती है, मद-ना करना, मर्यादा में रहना, भले अंधेरा दिखे पर आगे प्रकाश है । भले यहाँ दुःख का दरिया दिख रहा है, पर उस पार तो सुख का सागर है । मयणा के सामने भयंकर दुर्गंधी, कुष्ठी वर आकर खडा
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श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा