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क्षणभर भी विचार किए बगैर उनका राज्य लौटा देते है, उसमें भी तिरस्कार की भावना बिना, पूज्य भाव से ही राज्य दिया ।
ये सारे प्रसंग श्रीपाल के त्यागमय जीवन और अनासक्त भाव को उजागर करते है । एक तरफ श्रीपाल को जितना मिला उसे रखे और एक तरफ जितना छोड़ा उसे रखे, तो जो छोड़ा वो बढ़ जाएगा । पूरी जिंदगी जितना चाहिए उतना स्वर्ण बना सकते थे, कितने राज्य मिल सकते थे ? तो भी सब छोड़ देना, यही अनासक्त भाव की प्रतीति कराता है । अपनी इच्छा, अपेक्षा, जरुरत होने पर भी वो पूरी हो सके, ऐसा होने पर भी अपनी शक्ति मिला होने पर भी उसका त्याग करना, यही आराधक भाव की निशानी है । हाय-हाय करके, अन्याय-अनीति करके, दूसरों को हैरान-परेशान कर के सबका ले लूँ ऐसी वृत्ति-मनोदशा वाला चाहे जितनी धर्म क्रिया करता हो, पर उसे धर्म परिणत नहीं हुआ । श्रीपाल हमें संदेश देते है कि धर्म परिणत करने के लिए न्याय-नीति, व्यवहार-शुद्धि, अंतर शुद्धि आदि विशेष रुप से जरुरी है।
'मिला वो मेरा' और 'मिले उतना सब ले लूँ' इन भावो में हम अनादिकाल से रमण कर रहे है ।
यह रमणता तोड ने के लिए ही सिद्धचक्र-नवपद की आराधना है ।
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श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा