Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 67
________________ है पर पिता निश्चित करते हैं, तो मयणा हँसते मुँह स्वीकार लेती है । कोई खिन्नता, कोई उदासीनता नहिं, केवल प्रसन्नता ! पिता जाहिर में मर्यादा चुके है । बेटियों के बाद सबके सामने उसी सभा में वर की पृच्छा करते है । सुरसुंदरी तो इशारे से अपनी पसंदगी बता देती है और लग्न निश्चित भी हो जाते है । मर्यादाशील मदना से पूछने पर लज्जा-विवेकवती अधोमुखी बनकर मौन हो जाती है । पिता पुन: वही प्रश्न करने पर भान भूले पिता को जवाब नहिं देती है। मयणा समझती है कि आर्य-संस्कृति मे वर की पसंदगी मातापिता करते है । वो जो पसंद करते है, वो बेटी को आजीवन मान्य ही होता है, और इस बात में माता-पिता तो निमित्त मात्र है । बाकी तो अपने अपने कर्म के हिसाब से परिस्थितियाँ निर्मित होती है । इसलिए मयणा कोई जवाब नहिं देती, मर्यादा नही छोड़ती । वो जिनशासन का कर्मवाद पिताजी के समक्ष स्थापन कर पिता को स्थान पर लाने का प्रयत्न करती है । गुस्साए हुए पिता मयणा के सामने कोढ़ी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखते है । मयणा उसे हँसते मुख से स्वीकार कर लेती है । यहाँ सोचने की बात है कि मयणा कितनी मर्यादाशील है ! शास्त्राभ्यास तो किया है पर वैराग्य भाव नहीं है । ऐसी विकट स्थिति आने पर भी वैराग नहीं होता । दीक्षा के भाव नहीं है, आर्य मर्यादा भी तोड़ती नहीं है । खुदने जो कर्मवाद की स्थापना की है, उसे आगे कर पिताजी को कह सकती थी, 'पिताजी ! यह तो आपका लाया हुआ वर है । मेरे कर्म में जो होगा उसे मैं पसंद कर लूंगी।' ऐसा कहकर वो अंधकारमय जीवन से तत्काल छूट सकती थी, पर विवेकी किसे कहा जाता है ? मर्यादाशील किसे कहा जाता है ? भरी सभा में आत्मविश्वास और दृढता से कर्म-सिद्धांत स्थापन करने वाली मयणा ने बिना किसी तर्क-दलील किए, हिचकिचाहट के बगैर, क्षणमात्र के विलंब बिना कोढ़ी को स्वीकार लेती है । कौन समझ सकता है मयणा की इस मर्यादा-पराकाष्ठा को? श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा

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