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हमें भी जब स्व + आत्म सामाज्य पाने की तमन्ना जाग जाती है तब स्वपुरुषार्थ से ही वह पाया जा सकता है । परमात्मा मार्ग बताते है, पुरुषार्थ तो हमें ही करना है । दूसरो की सहायता से कैवल्य या सिद्धिआत्म साम्राज्य नहीं पाया जा सकता । श्रीपाल अकेले निकलते है और रास्ते में गिरि कंदरा में योगी मिलते हैं । वो स्वर्ण देने की पेशकश करते हैं, पर श्रीपाल लेने से इंकार कर देते हैं, लालच नहीं है ।
हमारी आत्मा भी एकाकी बनकर स्वसाम्राज्य पाने के लिए साधनामार्ग पर जाते हैं, तब अनेक लुभावनी सिद्धियाँ सहज मिलती है । साधक इनमें लालच करे तो साधना मार्ग अवरुद्ध हो सकता है । लोभ छोड़कर साधक साधना के लक्ष्य में स्थिर बने, तो ही आगे बढ़ सकता है ।
श्रीपाल साधकों का स्वर्ण छोड़कर आगे बढ़ते है । भरुच में उन्हें धवल मिलता हैं । धवल श्रीपाल को हर जगह परेशान ही करता है, उनका सब छिन लेने का ही प्रयत्न करता है । श्रीपाल सब जानते है, पर धवल को नहीं छोड़ते है । उल्टे जब- जब धवल को मृत्यु दंड मिलता है, श्रीपाल ही छुड़वाते है ।
हमारी आत्मा श्रीपाल है, तो धवल मोहनीय कर्म है । साधक जब एकाकी बनकर आत्म साम्राज्य पाने निकलता है, और लुभावनी सिद्धियों से दूर रहता है, तब मोहनीय कर्म स्वयं सिर उठाता है और कदम-कदम पर आत्मा को परेशान करता है, तो भी हमें वो अच्छा लगता है । जबजब वो मृत्यु के किनारे (११वें गुणस्थानक) पहुँचता है, तब-तब आत्मा ही उससे खींचकर उसे बचाता है ।
श्रीपाल को खत्म करने की सारी योजनाएँ निष्फल होने पर भी धवल के अंतर में शांति नहीं है । श्रीपाल ने धवल को अपने महल में रखा है, वो सोचता है कि सारी योजना योजनाएँ नाकाम हो गई, अब तो मै अपने हाथो से ही कटार मार कर सौ साल पूरे कर दूँ । ऐसे रौद्रध्यान के अध्यवसायों के साथ हाथ में कटार लेकर धवल उपर चढ़ता है । श्रीपाल
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा
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