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ऐसा यह तप है । कर्मसत्ता को परास्त कर आत्मसत्ता का समय यह तप निश्चित कर देता है, फिर सहज तप, आराधना चला करती है, आत्मा के हर प्रदेश पर नवपद-सिद्धचक्र का वास हो जाता है । क्षण-क्षण में, पल-पल में सिद्धचक्र का ध्यान-रटन-अंतर जाप शुरु हो जाता है । जिसके प्रभाव से दुष्ट-मलिन कर्म निर्बल बन गए हो, तो यह भूमिका साढे चार साल में आती है । नौ ओली विधिपूर्वक की जाए तो यह तप कर्म तोड़ने में समर्थ है । साढ़े चार साल में नौ ओली करने से यह भूमिका आती है । श्रीपाल ने यह भूमिका प्राप्त कर ली और मोक्ष-निश्चित हो गया ।
सिद्धचक्र की आराधना अनादि कर्म-चक्र को तोड़कर संसार को सीमित कर उसी या नजदीक के भवमें शाश्वत स्थान दिलाती है । हमारी भी ऐसी भूमिका नियत हो जाए तब समझना कि तप पूरा हो गया । ___ नवपदजी की ओली में प्रतिक्रमण-पूजा-स्नात्रपूजा–कायोत्सर्गसमवसरण-साथिया-जाप-आयंबिल कर लिया मतलब आराधना हो गई, पर ये सब बाह्य क्रियाएँ तो अभ्यन्तर भावो को चार्ज करने के लिए है । इतने क्रिया-अनुष्ठान करने के बाद बाकी का समय उन-उन पदों के ध्यान में रहने का है । चित्त को उस पदमय बनाना है । पूरा एक दिन एक पद के ध्यान में जाए, पद के गुण, वर्ण का ध्यान, मंत्र, जाप का ध्यान यूँ किसी न किसी ध्यान के माध्यम से अभ्यंतर आराधना-तप में प्रवेश करना है । (जो आज भूला दिया गया है) इस तरह नौ दिन एक-एक पद का ध्यान करने से चार्ज हुई आत्मा की बैटरी ६ माह काम करती है । हर छह माह में पुनः बैटरी चार्ज करना । ऐसे ९ बार आत्मशक्ति चार्ज करना यानि हमेशा के लिए आत्मा की बेटरी चार्ज ही रहने वाली है । आत्मा नवपदमय बन जाती है, संसार के भावों से अलिप्त हो जाती है, आरंभ-समारंभ के भावों से सहज मुक्त बन जाती है, श्रीपाल के जैसे सिद्धचक्र के ध्यान में लीन बन जाती है, सिद्धचक्र से भवोभव का सम्बन्ध बन जाता है । आत्मा को परमात्मामय बनाकर आत्मा में ही परमात्मतत्व प्रगट कराए यानि यह तप पूर्ण होता है।
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा