Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 78
________________ सिद्धचक्र का है । * अजितसेन राजा को युद्धभूमि पर वैराग्य । * अजितराजर्षि की श्रीपाल द्वारा की गई स्तुति । * अजितसेन राजा द्वारा पूर्वभव की आराधना का कथन । * श्रीपाल की ४.५ वर्ष सिद्धचक्र आराधना-उद्यापन, विस्तार से पूजन विधान-चैत्यवंदन विधान । * अंत में श्रेणिक राजा भी प्रभुवीर की वाणी से नवपदमें तत्वदृष्टि वाले बने । इस तरह पूज्यश्री ने बार-बार श्रोता या वाचक ध्यान सिद्धचक्रनवपद की ओर जाए, और वो पौद्गलिक भावो से मुक्त बने ऐसी शुगरकोटेड क्वीनाइन गोली के रुप में श्रीपाल-कथा मोहलक्षी जीवो के सामने रखी है। इसके साथ कर्मवाद-अनेकांत वाद, सामाजिक व्यवहार, संतानो के प्रति कर्तव्य, अभिमान-ईष्यादि का फल, समूह-आराधना का फल, पूर्वभव की आराधना के संस्कार, जिनपूजन विधि. अंगरचना, निसीहि का प्रयोगिक रुप, गंभीरता, मर्यादा, उपकार देखने की सूक्ष्म दृष्टि आदि अनेक मार्मिकतात्विक बाते पू.आ. रत्नशेखरसूरि म.सा.ने सहजता से कथा में परोसी है । इससे कोई भी व्यक्ति सिद्धचक्र की ओर आकर्षित होता है, और साथ-साथ उसमे अनेक शुभसंस्कारो की विचारधारा दृढ होती जाती है, ऐसा रचनाकौशल पूज्यश्री का है । नमन हो ऐसे पूज्यश्री को.. वाह कर्मराज ! तेरी विचित्र लीला.. श्रीपाल जन्मते ही राजकुमार बने, बाल्यावस्था में ही राज्य, सत्ता, संपत्ति, परिवार, शरीर का आरोग्य सब चला गया, अकेले होकर कोढ़ियो के समूह में मिलना पड़ा । पुनः सत्ता मिली, अखंड साम्राज्य मिला, मात्र एक ही वर्ष में नौ-नौ राजकन्याओ के साथ लग्न हुआ । अपने पिता का साम्राज्य पाया, और अंत में सबसे निर्लिप्त बनकर नवपद में लीन हो गए । वाह रे कर्मराजा ! राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की तेरी गजब की कला है। श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा

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