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भरुच में धवल के सैनिक आए या धवल पुनः राजा के सैनिक लेकर आया, कहीं भी डर नहीं है । शीकोतरी देवी के कथनानुसार बत्तीस लक्षणवाले नर की बलि देने वाली देवी को भगाने की बात हो तो भी डर नहीं है।
महाकाल राजा से अकेले लडने के लिए भी श्रीपाल तैयार है । धवल ने श्रीपाल को समुद्र में धक्का दे दिया । नीचे मौत दिख रही है, सब छूट रहा है, जान भी जा रही है, तब भी श्रीपाल को भय नहीं है ।
कुबडे के रुप में दिख रहे श्रीपाल को स्वयंवर में आए । अनेक राजा और राजकुमारो से लडना है तो भी भय नहीं है ।
कैसी भी परिस्थिति आए तो भी निर्भय है । श्रीपाल समझते है कि मैं तो पामर हूँ । मेरे सर पर परमेश्वर है तो फिर चिंता कैसी । मेरे सर पर नाथ है तो अनाथ क्यो बनूँ । मेरा काम तो प्रभु को हृदय में रखकर समर्पित रहना है, बाकी सब प्रभु सिद्धचक्र सम्हाले ।
श्रीपाल कहते है कि जो भी प्रभु को कभी नहीं छोडता उसे प्रभु भी कभी नही छोडते । छोटे बालक को मेले में केवल माँ की अंगुली ही पकडे रखनी होती है, बाकी जवाबदारी माँ ले लेती है । माँ से तो फिर भी भूल हो सकती है, पर प्रभु तो जगत्माता है, कहीं भूल की बात ही नहीं है ।
__जहाँ-जहाँ संकट आया वहाँ वहाँ श्रीपाल ने प्रभु को, सिद्धचक्र को याद किया और क्षणभर में तो संकट के बादल बिखर गए । श्रीपाल को जो मिला, उसमें वो अपना नही, सिद्धचक्र का प्रभाव मानतें है । जो मिला है उसमें अनासक्त भाव है, कहीं भी ममत्व नहीं है । इतनी संपत्ति-सत्ता होने के बाद भी सिद्धचक्र की आराधना परिवार सहित करते है। जीवन नवपदमय बन चुका है । इससे ही पुत्र को राज्य सोंपकर, राज्य कार्य से निवृत्त होकर सिद्धचक्र का ध्यान करते है, विस्तार से नवपद चिंतन करते हैं, अपनी आत्मा को ही अरिहंतादिक नवपद स्वरुपी देखते है, ध्यान की यह कैसी उच्चतम भूमिका है!
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा