Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 55
________________ आखिर तो श्रीपाल बनकर तिरे न ? उत्तर : भाई ! श्रीकान्त क्यों तिरे ? श्रीपाल क्यों बन सके । श्रीकान्त पापक्रिया में डूबे थे पर उनमें एक गुण था । आप में वह गुण है ? जो वह गुण होगा तो आप भी तिर जाएंगे । भयंकर हिंसक और पापी श्रीकान्त में निखालसता का गुण था । पूज्यपाद् आगमोद्धारक सागरजी म.सा. कहते हैं कि हजारों दोषों के बीच भी एक गुण प्रधानता से सर्वस्व के भोग से हो तो अनेक गुणों को खींच लाता है । पाप-व्यवहार में मस्त श्रीकांत का सहज स्वभाव था कि 'चाहे जैसी पाप क्रिया की हो पर रात्रि में अपनी पत्नि-श्रीमती को सब कह देना । श्रीमती कभी उसके अशुभ कार्यों की प्रशंसा नहीं करती, बल्कि टोक देती थी । वो रोज कहती. 'ये जंगल में घूमते जीव आपका क्या बिगाड़ते है, जो आप उन्हें मारते है ? ये आपको परेशान नहीं करते, आपका कुछ नहीं बिगाड़ते तो इनका शिकार करके आपको क्या मिलेगा । साध भगवंतो को परेशान करके, जीवो की हिंसा करके आप कौन सी गति में जाओगे ? कितने पाप बांधोगे ? अभी तो पुण्योदय है तो आपको सत्ता-संपत्ति-आरोग्य सब मिला है, पर जब पुण्य खतम हो जाएगा और पाप-कर्म का उदय होगा, रोगव्याधि-वेदना-अंतराय कैसे सहन कर पाओगे ? रोज रात को यही बातें चलती। __ आप अपनी सब बात धर्मपत्नि से कह सकते हैं या नहीं ? कदाचित् आपकी पापक्रिया में आपकी पत्नि सम्मत हो तो फिर भी कह दो, पर ऐसे कार्यों में सम्मति नहीं हो, 'पुण्योदय से जो मिलेगा, उसमें चला लेंगे, पर ऐसी प्रवृत्ति मत करो' ऐसा बार बार कहती ही रहती हो, वो पत्नि कैसी लगे ? वो हितचिंतक लगे या टकटक करनेवाली लागे? एक - दो बार पत्नि के मना करने के बाद पत्नि का कहना बंद हो जाए, पर आपके काले-सफेद करने के कार्य बंद नहीं होता है। श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा

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