Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 51
________________ 3. मैं कौन ? श्रीपाल या श्रीकान्त ? श्रीपाल चरित्र में आने वाले दो पात्र... (१) श्रीपाल - सब जानते हैं । (२) श्रीकान्त - श्रीपाल का पूर्वभव दोनों एक ही जीव के अलग-अलग भव है, तो भी विचार-वर्तन में रात-दिन का अन्तर है । हमें निश्चित करना है, मुझे कौन भाता है । वर्तमान में मैं कोन हूँ ? किसके भावों में रमण करता हूँ ? श्रीपाल-श्रीकान्त दोनो का 'यथा नाम तथा जीवन है' और हमें कोई संदेश दे रहे है । श्री = लक्ष्मी पाल-पालन करनेवाला श्री = लक्ष्मी कान्त=पति, मालिक एक व्यक्ति पुण्य से मिली लक्ष्मी का मालिक बन बैठा है, दूसरा पुण्य से मिली संपत्ति में मालिकी भाव नहीं रखता, पर मुझे व्यवस्था ही करना है, ऐसा मानता है । यह नामानुसार अर्थ है, हम कैसे भावों मे रमते है ? यह हमें सोंचना है । जो पुण्य से मिली सामग्री पर अपना स्वामित्व समझता है, उसके भाव 'श्रीकान्तपक्षी' है । जो पुण्य से प्राप्त सामग्री अनासक्त भाव से सम्हालता है वो 'श्रीपालपक्षी' है । याद रखिए, मालिकी भाव यानि आसक्ति श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा

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