Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 52
________________ भाव आया तो जीवनभर भयंकर, अकल्पनीय पापों की लाईन लग जाती है । श्रीकांत कैसे भयंकर पाप करता है और उनमें कितना आनंद लेते है ? रोज शिकार खेलने जाना, निरीह प्राणियों को मारना, मारने के बाद आनन्द कैसा ? यह भी याद नहीं आता कि इस आनंद के पीछे कितना कर्मबंध होगा ? कितना और कैसा पाप व्यापार ? शिकार के साथ कैसे तुक्के सूझते है ? कर्म की विचित्रता कैसी ? जंगल में नदी किनारे मुनि भगवंत काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर हैं । गजब की साधना है, आत्मा मे लय लग चुकी है । उन्हे देखकर श्रीकांत को न जाने क्या सूझता है कि उठाकर नदी में गले तक डुबो देते हैं । वो तो मस्ती मे मस्त है, उनके मन जल क्या और स्थल क्या ? श्रीकान्त ने दुर्ध्यान में कठोर कर्म बांध लिए । जिन मुनि के दर्शन मात्र से पापकर्म टूट जाते हो उनका इतना अच्छा निमित्त मिलने पर भी भयंकर कर्मबंध ? गुरुकर्मी जीवों की कैसी दशा? अब आगे देखिए । श्रीकांत राजमहल के गवाक्ष मे बैठा है । राजमार्ग पर सामने से साधु भगवंत आते दिखाई दिए, रजोहरण नजर आया और फिर तुक्का सुझा । तुरन्त सैनिक को आदेश दिया, 'यह चामरधारी कौन है ? उसे कोढ़ हुआ होगा, मक्खियाँ भिन-भिन कर रही होंगी, उन्हें उड़ाने के लिए यह चामर रखा होगा । जाओ ! उस कोढ़ी को नगर से बाहर निकालो, वरना पूरे नगर में कोढ़ फैला देगा ।'' कैसी असत् कल्पना ! भाग्य की विचित्रता देखो, कल्पनाओं के फितूर पैदा कर किसी को हैरान करना और कर्म बांधना । बस ! मैं राजा हूँ, मेरे पास सत्ता है, मैं सब कर सकता हूँ, इसी गुमान में है। मोहदशा सवार हो गई है, इससे पूरा जीवन पापमय हो गया है । मोहदशा के रास्ते चढ़े हुए जीव श्रीकांत के भावों में डूबकर कदम-कदम पर कर्मबंध कर रहे हैं। अब श्रीपाल को सोंचिए। जो पुण्य से मिली सामग्री अनासक्त भाव से सम्हालता है, लूँ-लू का भाव नहीं रखता है, आती लक्ष्मी को भी सात बार श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा

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