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अपना ही राज्य लेने की बात करते है ।
राजनीति के अनुसार जो युद्ध में जीते उसका राज्य । इस न्याय से अजितसेन का राज्य भी श्रीपाल को मिल गया है । बचपन में जिसने परेशान किया है, राज्य भी ले लिया है, ऐसे दुश्मन का राज्य सहजता से मिल गया है तो भी श्रीपाल सामने से कहते है, 'काकाश्री ! आप मेरे उपकारी हैं । इतने सालो तक आपने मेरा राज्य सम्हाला, वरना कोई हड़प लेता ।'' दुर्जन में भी गुण देखना यह आराधक भाव है । श्रीपाल का आत्मदल देखिए, पहचानिए और अपनी आत्मा के साथ तुलना कीजिए।
आपकी जमीन या संपत्ति पड़ोसी ने छिन ली हो, केस चल रहा हो, अचानक आपकी और पड़ोसी दोनों की जमीन आपके नाम करवाने का कोर्ट से आदेश आ जाए तो हमे मजा ही मजा, लेकिन आराधक आत्मा को इसमें आनंद नहीं आता, उसे तो किसी का कुछ भी लेने की इच्छा नहीं होती।
श्रीपाल काकाश्री के पैर मे गिरकर माफी मांगते है और उनका राज्य वापिस सौंपते हैं । कैसा होगा युद्धभूमि पर बना वो अद्भुत प्रसंग । जहाँ लेने के लिए युद्ध होते हों, उसी भूमि पर देने का यह अनोखा प्रसंग बना है ।
श्रीपाल पैर में गिरकर माफी मांगकर काकाश्री को राज्य वापिस देते हैं । काकाश्री खड़े है, युद्ध में हार की वजह से शर्मिंदा होकर नजरे नीची झुकाकर खड़े हैं। श्रीपाल उनके पैर पड़ते है । काकाश्री की नजर नीची होने से श्रीपाल पर पडती है, दृष्टि खुलती है । चित्त के द्वार खुल जाते हैं । कैसा है यह भतीजा ! अभी तो जिंदगी शुरु हुई है । अभी तो दुनिया देखी नहीं, जानी भी नहीं तो भी कितनी गंभीरता है, कितनी उदारता है ! कैसा विनयी है ! मुझे उपकारी मानकार मेरा राज्य लौटा रहा है । यह स्वप्न है या सत्य ? मेरे कारण यह इतने सालो तक भटका, कितनी आपत्तियों ने इसे घेरा तो भी यह राज्य दे रहा है । मैं वृद्ध हो गया, इतने सालो तक शासन किया, भतीजे का राज छिनकर सत्ता जमाई, तो भी राज्य का मोह नहीं छुट रहा है । इसने मधुर शब्दों मे राज्य वापिस मांगा तो भी मैं लोभी, राज्य सत्ता में आसक्त
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा