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बनकर युद्ध के लिए तैयार हो गया । मैं अभी भी राज्य छोड़ने के लिए तैयार नहीं हूँ, और यह युवानी में भी राज्य जीतकर लौटा रहा है । यह भतीजा है या भगवान ! धन्य है इस गुणवान भतीजे को ! धिक्कार है मुझ लोभी को ! कैसा विनय ! कैसी नम्रता ! कैसी सहिष्णुता ! कैसे भाववाही शब्द ! कहाँ से आया यह सब ? एक ही खून परंपरा होने पर भी जमीन आसमान का अंतर !!!
अजितसेन श्रीपाल के गुणों का आवर्तन करते हैं और अपने आप को धिक्कारते हैं । जगत का सनातन नियम है कि जब तक परगुणदर्शन की दृष्टि का विकास नहीं होता, तब तक स्वदोषदर्शन की दृष्टि प्रकट नहीं होती, इससे ही परगुणदर्शन को धर्म का प्रवेशद्वार कहा है । गुणानुराग धर्म को प्रकट करता है । हमारे जीवन में गुणानुराग, परगुणदर्शन की भावना जागी या नहीं ? जहाँ जाते है वहाँ केवल अपनी ही प्रशंसा करना, अपने में गुण नहीं हो तो भी आरोपण करके गाना । अपने दोषों को भी सुंदर लेप करके गुण के रुप में गाते हैं । कैसी वृत्ति है हमारी ? परगुणदर्शन आदि धर्म-प्राप्ति के पूर्व की भूमिका है, वो भी हममें प्रकट हुई या नहीं ? यह यक्ष प्रश्न है ।
अजितसेन युद्धभूमि पर श्रीपाल के विनय, निःस्पृहता, उदारता, निःस्वार्थभाव देखकर विचारों में घिर गए हैं । अपने पर आज तक घमंड था, अब अपनी जात पर नफरत हो रही है । कहाँ श्रीपाल और कहाँ मैं ? कहाँ उसकी जवानी और कहाँ मेरा बुढापा ? कहाँ वो गुणो का उद्यान और कहाँ में दुर्गुणों से पूरा ? युद्धभूमि का युद्ध तो कब का पूरा हो गया है, शांति हो गई है, पर अब चित्तप्रदेश में विचारों का घमासान चालू हो गया है । अपने आप को धिक्कार रहे हैं। राज्य की लोलुपता में पूरा जीवन निचोड़ दिया, कभी आत्मकल्याण का विचार ही नहीं आया ? खुद से प्रश्न कर रहे हैं. (हे आत्मन ! बड़प्पन किसमे है । मुझमे या भतीजे में ? इन भयंकर पापों से मेरी कैसी दुर्गति होगी, कौन बचाएगा ? दुर्गति दायक राज्य का क्या करना ?'' भावनाओं मे चढ़े है और उसी युद्धभूमि में वैराग्य भाव प्रकट हुआ है । स्वयं ने श्रमणवेश ग्रहण किया और यावज्जीव 'करेमि भंते' का उच्चारण कर लिया। विशुद्ध संयमजीवन का पालन कर ज्ञान-ध्यान में आगे बढ़ रहे है ।
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श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा