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(१) समुद्र में धक्का दिया (२) चांडाल का कलंक चड़ाया (३) कटार लेकर मारने आया ।
धवल को श्रीपाल का सब छिन लेना है, पर श्रीपाल ने धवल पर बार-बार उपकार किया है, मौत के मुँह से बचाया है, दो बार संपत्ति बचाई है, तो भी धवल की दुर्जनवृत्ति नहीं जाती है । धवल यानि अपकार की पराकाष्ठा ।
अजितसेन ने भी श्रीपाल को दो बार जान से खत्म करने का प्रयास किया । श्रीपाल दो साल के थे तब उनके पिताजी की मृत्यु हो गई थी । सुबुद्धि मंत्री श्रीपाल का राज्याभिषेक कर राज्य-संचालन कर रहे है । इस समय में अजितसेन काका सेना-भेद कर राज्य हड़प लेते है । श्रीपाल को मारने का आदेश दिया है । सैनिको को मारने के लिए भेजा, पर पुण्य जाग्रत होने से बच जाते है।
(१) श्रीपाल को बचपन में जान से मारने के लिए तैयार हुए । (२) राज्य मांगने पर अपने हाथों ही मारने के लिए अजितसेन तैयार हो गए। धवल ने तीन बार, अजितसेन राजा ने दो बार मारने का प्रयत्न किया । दोनों मे अधिक दुर्जनता किसमे है ? श्रीपाल कथा पढ़ने-सुननेवाले को धवल में ही अधिक दुर्जनता नजर आती है । अजितसेन का तो शुरु और अंत में मात्र दो बार आंशिक पात्र आता है । जरा गहराई से सोंचे तो धवल से भी खूखार अजितसेन थे । धवल को ईर्ष्या हो ऐसी सहज स्थिति तो थी ही । अपने सामने खाली हाथ आए व्यक्ति को आसरा देने के बाद वो अपने से आगे निकल जाए तो सहज ईर्ष्या हो जाती है । कोई परिणत धर्मी पुण्यात्मा हो तो ईर्ष्या नहीं हो वरना थोड़ी बहुत ईर्ष्या तो होती ही है । हमें भी दूसरों की तरक्की देखकर आनंद होता है या ईर्ष्या होती है ? स्वयं सोंचे । धर्मी बनने के लिए ये भूमिकाएँ तलाशनी चाहिए ।
अजितसेन खुद राजा है, खुद का राज्य है । भाई की मृत्यु के बाद भतीजे को सम्हालना, तैयार करना, रक्षण करना उनका नैतिक-व्यवहारिक
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा