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राजी नहीं हैं । ऐसा क्यों ? श्रीपाल कहते है कि जिसकी मेहनत का है उसका ही गिना जाता है, दूसरों की मेहनत का लिया नहीं जाता ।
श्रीपाल-मयणा को भी छोड़ने के लिए तैयार थे, यहाँ स्वर्ण भी छोड रहे है । हमने किसी का काम किया हो तो उससे अपेक्षाएँ कितनी ? श्रीपाल निःस्पृही हैं, नि:स्वार्थ है । तमाम सोना छोड दिया, इससे उनका निर्मोही भाव प्रकट होता है । आराधक पुण्यात्मा निर्मोही होता है, अन्य की मेहनत के फल में अपेक्षा नहीं रखता । कौन सी शक्ति आगे ? देव की या मनुष्य की?
दैवी शक्ति ने धवल सेठ के जहाजों को अटका दिया है । शिकोतरी देवी बत्तीस लक्षणवाले पुरुष की बलि चाहती है । दैवी ताकत को हटाने का कोई अन्य उपाय नहीं है । श्रीपाल मुख्य जहाज के स्तम्भ पर चढकर सिद्धचक्र का ध्यान धरकर एक हुंकार करता है और शिकोतरी देवी की शक्ति पलायन हो जाती है । सामान्यतः यह कहा जाता है कि देव-देवी में शक्ति अधिक होती है, पर मनुष्य निर्मल और सात्त्विक हो और ध्यान में बैठा हो तो देव-देवी से भी बढ़ जाता है । व्यक्ति में सत्त्व हो तो कहीं पीछे नहीं रहता है । सात्त्विक मनुष्य के सामने दैवी शक्ति अतिहीन हे । इससे ही सत्वशाली के सामने देव हाथ जोडकर खडे रहते है । सत्त्व रखो, साधना में स्थिर बनो तो तुच्छ देव कहीं भाग जाएंगे । वहीं सात्त्विक देव सामने से आएंगे । श्रीपाल सिद्धचक्र का ध्यान करते है और अधिष्ठायक देव तुरन्त उपस्थित हो जाते हैं । सत्त्व ओर साधना हो वहाँ देव खींचे चले आते हैं । देवों की भवप्रत्ययिक शक्ति विशिष्ट होने के बावजूद मानव की गुण प्रत्ययिक शक्ति के आगे देव कमजोर पड़ जाते है।
सत्वशाली ओर संयमी आत्माओं के दर्शन-वंदन के लिए देव आते हैं । श्रीपाल कहते हैं कि सत्व रखो, इष्ट-दिव्य तत्व को समर्पित बनो तो देव भी हमेशा हाजिर होते है ।
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा