Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 38
________________ व्यापार चल रहा है । श्रीपाल को जिनालय के द्वार बंध होने के समाचार मिलते है। श्रीपाल जिनालय दर्शन ओर कौतुक देखने जाने के लिए तैयार होते है । धवल इनकार करता है । श्रीपाल अपना व्यापार धवल को सोंपते है । 'पुराना माल बेचकर नया माल खरीद लेना ।'' ऐसा कहकर वहाँ से रवाना होते है । श्रीपाल जानते हैं कि धवल के हृदय में मेरे लिए इर्ष्या की आग सुलग रही है । धवल से मिले जहाज, राजपुत्री से विवाह, राजा की ओर से कन्यादान में मिले बडे जहाज-इनमें से धवल को कुछ भी अच्छा नहीं लगा । 'मुझसे आगे निकल गया, इसका सब ले लूँ' ऐसे विचार चलते रहते है । श्रीपाल की हाजरी में ग्राहको को खींच-खींच कर ले जाता है । श्रीपाल ने अपना व्यापार धवल को दिया तो धवल प्रसन्न हो गया । उसने सोचा माल सस्ते भाव से बेचा और महंगे भाव में खरीदा ऐसा कहूँगा, मुझे दोनो तरफ से कमाई होगी । श्रीपाल धवल को समझता है तो भी मन में कोई शंकाकुशंका नहीं रखते हैं। एक कल्पना कीजिए, आपकी दुकान में जो माल मिलता है वही माल बाजु की दुकान में भी मिलता है । बाजुवाला आपके यहाँ आनेवाले ग्राहकों को पकड पकड कर ले जाता है, भाव तोडकर आकर्षित करता है । आपकी उन्नति नहीं हो ऐसा ही सतत सोंचता है । ऐसी स्थिति में आपको २-३ दिन बाहर गाँव जाने का हो जाए तो दुकान की चाबी पडोसी को देकर ध्यान रखने के लिए कहेंगे? श्रीपाल को कर्म-सिद्धान्त, पुण्य-पाप के खेल समझ में आ गए है । श्रीपाल को पुण्य पर पूर्ण भरोसा है । पुण्य में होगा तो कोई ले जानेवाला नहीं । भाग्य में होगा तो मिलेगा ही । किसी पर शंका-अविश्वास करने से क्या होगा । पुण्य नहीं हो या पिछले भवों के लेन-देन बाकी हो तो ही सामने वाली व्यक्ति को छिन लेने का खयाल आता है । श्रीपाल समझतें है कि पहले एक दिन सत्ता-संपत्ति सब था, पुण्य गया तो सब चला गया । पुण्य-प्रभाव 22 श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा

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