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उंबर को कुछ समझ नहीं आ रहा है । हाँ ! बाह्य स्वरुप यथावत् है, था वेसा ही कोढी है तो भी 'चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कह्यु' 'मनःप्रसन्नतामेति' इन पंक्तियों की सार्थकता का अनुभव करता है । यह उसकी अपनी अनुभूति है, मयणा को तो उंबर कहते हैं तब पता चलता है । पहले दिन ही सिद्धचक्रजी फले इसमें काल या चौथे आरे का प्रभाव नहीं है । प्रभाव तो भक्त और भगवान के संबंध का है, अंतर की भक्ति का है । आज भी अनेक पुण्यात्माएँ सिद्धचक्रजीकी फलश्रुति का अनुभव कर रहे है। आरा चौथा हो या पाँचवा, सतयुग हो या कलियुग हो, सिद्धचक्र तो वही के वही है और उनका प्रभाव भी वही का वही है । अंतर की श्रद्धा, अदम्य उत्साह, सर्वस्व भोग से भक्ति, उपादान शुद्धि-अंतर शुद्धि, विधि मर्यादा का पालन, अहोभाव ये सब तत्व होंगे तो सिद्धचक्रजी अवश्य फलेंगे' उंबर अपनी अनुभूति बताते है। टिप्पणी : आजकल पूजनों में क्रियाकारकों का वर्णनात्मक समझ (लेक्चरबाजी) शुरु हो गई है जो बिल्कुल शास्त्रमर्यादा रहित है । पूजन के एक दिन पहले सुबह / दोपहर/ शाम को समझाने का कार्यक्रम रखा जाए तो फिर भी उचित है । बाकी तो चालू पूजन में भाषण देने से (१) विधि-मर्यादा का भंग होता है । मंत्राक्षरो के क्रम में विलंब होता है। (२) दीक्षादि प्रसंगों में भगवान के समक्ष आचार्य भगवंत भी उपदेश नहीं देते तो एक सामान्य क्रियाकारक को भगवान के सामने भाषण देने का अधिकार किसने दिया ? भगवान की आमन्या टूट रही है । (३) समझ अच्छी दे तो क्रियाकारक अच्छा, भले फिर मंत्रोच्चारण अशुद्ध हों, विधि में गडबड हो (क्योंकि इस बात में सब अनजान है ) शुद्ध-सात्त्विक और उच्चार शुद्धवाले क्रियाकारको की किंमत कम हो रही है । इस विषय में आराधक जागृत होंगे तो विधिशुद्धि, उच्चारशुद्धि और मर्यादा शुद्धि का पुनः जागरण होगा । विधानो की अनुभूति का प्रारम्भ होगा । पर से नहीं, स्व से पहचाने जाओ।
श्री सिद्धचक्र के प्रभाव से उंबर का कोढ रोग शमन हो गया । औषध के लिए गइ माँ कमलप्रभा भी लौट आई । मयणा की माता रुपसुंदरी जिनालय में मिली । अपने स्थान पर ले जाकर कमलप्रभा ने पुत्र का परिचय दिया । रुपसुंदरी खुश हो गई । प्रजापाल राजा को समाचार भेजे । प्रजापाल राजा ने श्रीपाल-मयणा का राजमहल में स्वागत किया ।
श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा