Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 31
________________ गहराई से अभ्यास है । उंबर विधि-विधान से अनजान है । उंबर ऐसा नहीं सोचते कि पूजा-विधान करते मयणा जैसा कहेगी, कर लेंगे । जो भी धर्मक्रिया-आराधना-पूजा-पूजन करना है वो पू.गुरुदेव से समझने की मेहनत करते है।'' सिद्धान्त (थियरी) गुरु महाराज से सीख कर प्रयोग (प्रक्टीकल) मयणा से सीखते हैं । क्रियात्मक धर्म में निपुणता प्राप्त करते है । तत्त्व को भावात्मक बनाते है । तत्त्व-रहस्य का ख्याल नहीं हो तो आराधना में आनंद कैसे आए ? उंबर को मयणा में सीखने में लघुता, शर्म महसूस नहीं होती । वहाँ तो है केवल लगन । जो भी अनुष्ठान करना है उसकी समझ होनी चाहिए । हाँ, उंबर यह भी नहीं सोंचते है कि विधि करते जाऊँगा और समझते जाऊँगा । यदि ऐसा किया जाए तो अनुष्ठान क्रम के अनुबंध टूटते जाते हैं । विधि का क्रम-विचलन होने से अध्यवसाय शुद्धि जैसी होनी चाहिए वैसी नहीं हो पाती है । ऐसी समझ किसी ने नहीं दी । उंबर की स्वयं-भू चेतना आत्मदल ही यथोचित प्रवृत्ति करा रहा है । उंबर हमसे कह रहे है, 'जो भी अनुष्ठान-क्रिया करते हों उसके पहले ही उसके बारे में समझ लें तो अनुष्ठान ओर पूज्य-तत्त्व के प्रति अहोभाव-आदर होता है । चालू विधि में समझने की प्रवृत्ति तो विधि का अनादर, आशातना है । ऐसे में विधान कैसे फले? सिद्धचक्रजी कब फलते है ? उंबर ने मयणा के साथ आसोज (कुंवार) शुक्ला सप्तमी से सिद्धचक्र की आराधना शुरु की । आराधना में अदम्य उत्साह है । पहला दिन है, पहली बार ही आयंबिल का पच्चक्खाण किया है । प्रभु की स्नात्रपूजा कर सिद्धचक्रजी का अभिषेक किया, शांतिकलश किया, फिर उंबर ने स्नात्रजल शरीर पर लगाया और आश्चर्य ! अंतर में अगम्य प्रसन्नता पैदा हुई । वर्षों से परेशान करनेवाला कोढ रोग और उसके निमित्त शरीर में होनेवाली दाहजलन शांत नहीं प्रशांत हो गई । क्षणमात्र में सब हो गया । प्रभपूजा से दाहउष्णता-जलन-वेदना सब त्रासजनक परिस्थितियाँ नौ-दो-ग्यारह हो गई। श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा

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