Book Title: Shripal Katha Anupreksha
Author(s): Naychandrasagarsuri
Publisher: Purnanand Prakashan

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Page 28
________________ हाँ, एक बात समझने जैसी है, उंबर का समर्पण स्वार्थ के लिए नहीं है । मेरा शुभ होगा, रोग जाएगा, ऐसी किसी भावना से तदाकार नहीं बना । निःस्वार्थ भाव का समर्पण है । 'दिव्यशक्ति है, बस ! झुक जाओ' यह उंबर हमसे कह रहे हैं। उंबर का भयंकर पापोदय चल रहा है । इससे ही राज्य–परिवारसंपत्ति-वैभव-सत्ता-देह-नाम सब चल गया है, आरोग्य भी बराबर नहीं है । ऐसे पापोदय में भी उंबर का उपादान (योग्यता) यथावत् टिका है । उंबर रोगादि से घिरे हैं पर उपादान की दृष्टि में गुणों के भंडार हैं । आत्मा की योग्यता ही कितनी सुंदर परिणत हुई है । उपादान की शुद्धि पुण्य से नहीं पर कर्म की लघुता-मंदता से आती है । धर्मप्राप्ति के लिए पुण्योदय से भी आत्म-शुद्धि अधिक जरुरी है । शास्त्रकारो की यह बात उंबर के जीवन से हमें समझ आती है । पुण्योदय धर्म के संयोग दे सकता है, पर सफलता आत्मशुद्धि से ही शक्य हैं । प्रभुदर्शन प्रणिधानपूर्वक मयणा-उंबर भगवान के समक्ष हाथ जोडकर खडे है । मेरा क्या होगा? इसकी लेशमात्र चिंता मयणा नहीं करती । हृदय में शासन-निंदा का अपार दुःख है । दुखते दिल से मयणा एकाग्र बनकर प्रभु की भाववाही स्तुति बोल रही है । उंबर प्रभुमय बन गए है, उस समय प्रभु के कण्ठ से माला और हथेली से बीजोरा उछलता है । मयणा को दोनों चीजें दिखती है । उंबर प्रभु में रत हो गए है, प्रभु के सिवाय कुछ दिखाई नहीं दे रहा है । यह प्रणिधान की भूमिका है । उंबर को प्रभु का परिचय नहीं है, पर प्रणिधान हो गया है । प्रभुदर्शन की मस्ती में व्यवधान बाधक नहीं बनते है । यह कौन सी भूमिका होगी ? प्रभुदर्शन की, प्रभुमय बनने की । जब मयणा कहती है, 'स्वामीनाथ ! ग्रहण कर लीजीए, यह प्रभुकृपा है । यह शगुन है ।'' तब उंबर का ध्यान उस ओर जाता है । वह जल्दी से दोनों हाथों में उन दोनो शुभ संकेतों का स्वीकार कर लेता है । श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा

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